Tuesday, 2 April 2019

पाठ करने की विधि


*सत्यश्रमाभ्यां सकलार्थसिद्धि"*  सत्य से तथा परिश्रम से प्रत्येक कार्य की सिद्धि होती है । सत्य अर्थात ईमानदारी से तथा विधि से परिश्रम से  ही कार्य सिद्ध होते हैं ।

भगवान कीं और भगवती कीं  सभी स्तुतियां विद्वानों ने भक्तों ने तथा ऋषियों ने देवताओं ने कीं हैं । भगवान ने तथा भगवती ने सभी की प्रार्थना सुनकर उनके कष्ट दूर किए हैं । उन्हें ज्ञान दिया है ।

सुख सम्पत्ति तथा मुक्ति प्रदान की है । आज के स्त्री पुरुष अपने किए गए दुखदाई कर्मों से दुखी होकर पूजा अर्चना करवाते हैं ,और स्वयं भी करते हैं ।

लेकिन भगवान के प्रति , देवताओं के प्रति तथा ब्राह्मणों एवं विधि के प्रति न तो भाव है और न ही उदारता है ,और न ही ज्ञान है । दुखी होकर भी भावना नहीं है ।

अपने दुख को जैसे मनुष्यों को रिश्तेदारों ,को रो रो कर सुनाते हैं , तथा सहयोग सहायता की आशा करते हैं , याचना करते हैं , वैसे ही उसी भावना से अपने भगवान से न तो सुनाते हैं, और न ही आशा करते हैं ,और न ही याचना करते हैं ।

आप जैसे हैं , उसी भावुकता से अपनी भाषा में ही स्तुति करिए , प्रार्थना करिए  , इसी को सत्य कहते हैं । सूरदास , तुलसीदास , मीरा आदि ने कोई वेद मंत्रों से स्तुति नहीं की है ।

अपनी भाषा में ही की है । भगवान ने. सुना ,और दौड़े चले आए । जो मनुष्य अपने दुख संसार के लोगों को नहीं सुनाते हैं , संसार के किसी भी मनुष्य की आशा नहीं करते हैं , तो भगवान और भगवती तथा सभी देवता उसी मनुष्य की सुनते हैं ।

यही है प्रार्थना की सच्ची विधि । फिर भी यदि भावना नहीं बन पाती है तो ऋषियों ने पाठ करने की भी विधि लिखी है , उसके अनुसार करिए ।    

"याज्ञवल्क्य ऋषि ने "शिक्षा " शास्त्र लिखा है । शिक्षा शास्त्र छै शास्त्रों में से एक शास्त्र है ।वेद का अंग है । इसलिए इसे " याज्ञवल्क्यशिक्षा " कहते हैं ।

इसमें वेद के उच्चारण करने की विधि बताई गई है । वर्णों के उच्चारण करने की विधि बताई गई है ।  "याज्ञवल्क्यशिक्षा" के 81 वें और 83 वें श्लोक में कहा है कि                 

*"यथा सुमत्तनागेन्द्रः पदात् पदं निधापयेत् ।*
*एवं पदं पदाद्यन्तं दर्शनीयं पृथक् पृथक् ।।81 ।।*

जैसे मदमस्त हाथी धीरे धीरे एक एक पैर रख रख कर आनन्द से बिना किसी भय के चलता है , उसी प्रकार पाठ करने वाले को श्लोक के , वेद के , तथा अन्य स्तुति पदों के अक्षरों को देख देख कर शुद्ध उच्चारण करते हुए पाठ करना चाहिए ।  

अब आगे के श्लोक को देखिए ।                       
*"माधुर्यमक्षरव्यक्तिः पदच्छेदस्तु सुस्वरः ।*
*धैर्यं  लयसमत्वं च षडेते पाठकाः गुणाः ।। 83 ।।*

पाठकरनेवाले में ये 6 गुण होना चाहिए , तब पाठ करने का फल प्राप्त होता है ।

*(1) माधुर्यम् --* पाठ करने वाले के  शब्दों का  उच्चारण ऐसा होना चाहिए कि सुननेवाले के कानों को मधुरता लगने लगे । सुननेवाले को भले ही समझ में न आए लेकिन वह सुनते ही एकक्षण के लिए सुनते ही रुक जाए , इसी को मधुरता कहते हैं ।           

*(2) अक्षरव्यक्तिः --* प्रत्येक अक्षर स्पष्ट सुनाई देना चाहिए । इतनी जल्दी नहीं बोलना चाहिए कि स्वयं की जीभ भी न लौट रही हो ।         

*(3) पदच्छेदः --* जो पद जैसे हैं , वैसे ही अलग अलग बोलना चाहिए ।       

*(4) सुस्वरः --* स्वर भी एक जैसा ही होना चाहिए । कभी बहुत ऊंचे बोलने लगे ,तो कभी बहुत धीरे बोलने लगे , ऐसा नहीं होना चाहिए । एक स्वर में ही बोलना चाहिए ।                    

*(5) धैर्यम् --* धैर्यपूर्वक पढ़ना चाहिए । पाठ जल्दी समाप्त करने की शीघ्रता नहीं करना चाहिए । भले ही 10 ,20 मिनिट और अधिक लग जाएं ।                           

*(6) लयसमत्वम् --* जिस छंद में जो श्लोक लिखा हो , उसको उसी लय में बोलना चाहिए । जैसे रामायण में दोहा ,सोरठा ,चौपाई ,छंद , ये सब छंदशास्त्र के अनुसार लिखा गया है , इसी प्रकार संस्कृत के श्लोक भी छन्दोबद्ध होते हैं ।

यही छै गुण पाठ करने वाले में होना चाहिए । इसी को ईमानदारी कहते हैं । इसी को परिश्रम कहते हैं । इसलिए यदि रामायण का भी पाठ कर रहे हैं तो चौपाई को चौपाई की लय में ही बोलना चाहिए ।

पाठ भले ही हनुमान चालीसा , रामायण आदि किसी का भी कर रहे हैं , सबके पाठ की यही विधि है । इसी विधि से ही पाठ करने का फल प्राप्त होता है ।

बहुत जल्दी जल्दी पाठ करने से ,नहाते हुए पाठ करने से , कपड़े बदलते हुए पाठ करने से, बीच बीच में बात करने से , यहां वहां देखते हुए पाठ करने से , न तो पाठ करने का फल प्राप्त होता है , और न ही पाठ करते हुए कोई हृदय में भावना बनती है ।

ये सब अधम पाठ हैं ।  भले ही कितना भी बड़ा विद्वान हो , कितना भी याद हो , ऐसे पाठ करने से कोई फल नहीं मिलता है । ब्राह्मणों को भी विधि जानकर ही पाठ करना चाहिए ।         

राधे राधे ।

*-आचार्य ब्रजपाल शुक्ल , वृन्दावनधाम*

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