*सत्यश्रमाभ्यां सकलार्थसिद्धि"* सत्य से तथा परिश्रम से प्रत्येक कार्य की
सिद्धि होती है । सत्य अर्थात ईमानदारी से तथा विधि से परिश्रम से ही कार्य सिद्ध होते हैं ।
भगवान कीं और
भगवती कीं सभी स्तुतियां विद्वानों ने भक्तों
ने तथा ऋषियों ने देवताओं ने कीं हैं । भगवान ने तथा भगवती ने सभी की प्रार्थना
सुनकर उनके कष्ट दूर किए हैं । उन्हें ज्ञान दिया है ।
सुख सम्पत्ति तथा
मुक्ति प्रदान की है । आज के स्त्री पुरुष अपने किए गए दुखदाई कर्मों से दुखी होकर
पूजा अर्चना करवाते हैं ,और स्वयं भी करते
हैं ।
लेकिन भगवान के
प्रति , देवताओं के प्रति तथा
ब्राह्मणों एवं विधि के प्रति न तो भाव है और न ही उदारता है ,और न ही ज्ञान है । दुखी होकर भी भावना नहीं है
।
अपने दुख को जैसे
मनुष्यों को रिश्तेदारों ,को रो रो कर
सुनाते हैं , तथा सहयोग सहायता
की आशा करते हैं , याचना करते हैं ,
वैसे ही उसी भावना से अपने भगवान से न तो
सुनाते हैं, और न ही आशा करते
हैं ,और न ही याचना करते हैं ।
आप जैसे हैं ,
उसी भावुकता से अपनी भाषा में ही स्तुति करिए ,
प्रार्थना करिए , इसी को सत्य कहते हैं । सूरदास , तुलसीदास , मीरा आदि ने कोई
वेद मंत्रों से स्तुति नहीं की है ।
अपनी भाषा में ही
की है । भगवान ने. सुना ,और दौड़े चले आए ।
जो मनुष्य अपने दुख संसार के लोगों को नहीं सुनाते हैं , संसार के किसी भी मनुष्य की आशा नहीं करते हैं , तो भगवान और भगवती तथा सभी देवता उसी मनुष्य की
सुनते हैं ।
यही है प्रार्थना
की सच्ची विधि । फिर भी यदि भावना नहीं बन पाती है तो ऋषियों ने पाठ करने की भी
विधि लिखी है , उसके अनुसार करिए
।
"याज्ञवल्क्य
ऋषि ने "शिक्षा " शास्त्र लिखा है । शिक्षा शास्त्र छै शास्त्रों में से
एक शास्त्र है ।वेद का अंग है । इसलिए इसे " याज्ञवल्क्यशिक्षा " कहते
हैं ।
इसमें वेद के
उच्चारण करने की विधि बताई गई है । वर्णों के उच्चारण करने की विधि बताई गई है
। "याज्ञवल्क्यशिक्षा" के 81
वें और 83 वें श्लोक में कहा है कि
*"यथा
सुमत्तनागेन्द्रः पदात् पदं निधापयेत् ।*
*एवं पदं पदाद्यन्तं
दर्शनीयं पृथक् पृथक् ।।81 ।।*
जैसे मदमस्त हाथी
धीरे धीरे एक एक पैर रख रख कर आनन्द से बिना किसी भय के चलता है , उसी प्रकार पाठ करने वाले को श्लोक के ,
वेद के , तथा अन्य स्तुति पदों के अक्षरों को देख देख कर शुद्ध
उच्चारण करते हुए पाठ करना चाहिए ।
अब आगे के श्लोक
को देखिए ।
*"माधुर्यमक्षरव्यक्तिः
पदच्छेदस्तु सुस्वरः ।*
*धैर्यं लयसमत्वं च षडेते पाठकाः गुणाः ।। 83 ।।*
पाठकरनेवाले में
ये 6 गुण होना चाहिए , तब पाठ करने का फल प्राप्त होता है ।
*(1) माधुर्यम् --* पाठ करने वाले
के शब्दों का उच्चारण ऐसा होना चाहिए कि सुननेवाले के कानों
को मधुरता लगने लगे । सुननेवाले को भले ही समझ में न आए लेकिन वह सुनते ही एकक्षण
के लिए सुनते ही रुक जाए , इसी को मधुरता
कहते हैं ।
*(2) अक्षरव्यक्तिः --* प्रत्येक अक्षर स्पष्ट सुनाई देना चाहिए । इतनी जल्दी नहीं
बोलना चाहिए कि स्वयं की जीभ भी न लौट रही हो ।
*(3) पदच्छेदः --* जो पद जैसे हैं ,
वैसे ही अलग अलग बोलना चाहिए ।
*(4) सुस्वरः --* स्वर भी एक जैसा
ही होना चाहिए । कभी बहुत ऊंचे बोलने लगे ,तो कभी बहुत धीरे बोलने लगे , ऐसा नहीं होना
चाहिए । एक स्वर में ही बोलना चाहिए ।
*(5) धैर्यम् --* धैर्यपूर्वक
पढ़ना चाहिए । पाठ जल्दी समाप्त करने की शीघ्रता नहीं करना चाहिए । भले ही 10
,20 मिनिट और अधिक लग जाएं
।
*(6) लयसमत्वम् --* जिस छंद में जो
श्लोक लिखा हो , उसको उसी लय में
बोलना चाहिए । जैसे रामायण में दोहा ,सोरठा ,चौपाई ,छंद , ये सब छंदशास्त्र के अनुसार लिखा गया है , इसी प्रकार संस्कृत के श्लोक भी छन्दोबद्ध होते हैं ।
यही छै गुण पाठ
करने वाले में होना चाहिए । इसी को ईमानदारी कहते हैं । इसी को परिश्रम कहते हैं ।
इसलिए यदि रामायण का भी पाठ कर रहे हैं तो चौपाई को चौपाई की लय में ही बोलना
चाहिए ।
पाठ भले ही
हनुमान चालीसा , रामायण आदि किसी
का भी कर रहे हैं , सबके पाठ की यही
विधि है । इसी विधि से ही पाठ करने का फल प्राप्त होता है ।
बहुत जल्दी जल्दी
पाठ करने से ,नहाते हुए पाठ
करने से , कपड़े बदलते हुए पाठ करने
से, बीच बीच में बात करने से ,
यहां वहां देखते हुए पाठ करने से , न तो पाठ करने का फल प्राप्त होता है , और न ही पाठ करते हुए कोई हृदय में भावना बनती
है ।
ये सब अधम पाठ
हैं । भले ही कितना भी बड़ा विद्वान हो ,
कितना भी याद हो , ऐसे पाठ करने से कोई फल नहीं मिलता है । ब्राह्मणों को भी
विधि जानकर ही पाठ करना चाहिए ।
राधे राधे ।
*-आचार्य ब्रजपाल शुक्ल ,
वृन्दावनधाम*
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