संसार में प्रायः प्रत्येक स्त्री पुरुष
महात्माओं से तथा मंदिरों के भगवान से चमत्कार की अपेक्षा रखते हैं । यदि कोई
मुसलमानों की मजार में कुछ देखने को मिल गया, या किसी की
मनोकामना पूर्ण हो गई, तो हिन्दू लोग
अपनी परम्परा तथा पूजा पद्धति को छोड़कर मुसलमान की मजारों में चद्दर चढ़ाने लगते हैं, *शिर पर मुसलमानों की तरह ही रूमाल डालकर पहुंच जाते हैं, भीख मांगने के लिए ।*
और यदि कहीं
हिन्दुओं के किसी महात्मा के यहां, या किसी मन्दिर
में कामना की पूर्ति होती है, तो मुसलमान भी
अपनी परम्परा तथा खुदा को छोड़कर हिन्दुओं के देवताओं के यहां भीख मांगने के लिए
पहुंच जाते हैं ।
अब भले ही कोई
काफिर कहे, तो कह ले । साईंबाबा जब
पैदा नहीं हुए थे, तो पता नहीं
लोगों की मनोकामना कौन पूर्ण करता था ?
अर्थात जो दुखी है, जिसको धीरज नहीं है, उसकी श्रद्धा
स्थिर नहीं होती है । ऐसे लोग भगवान और महात्माओं को रिश्तेदारों की तरह मानते हैं
। यदि समय पर काम आए, तो बहुत अच्छा
रिश्तेदार है । बहुत अच्छा आदमी है ।
और यदि किसी
कारणवश रिश्तेदार काम नहीं आए, तो रिश्तेदारी
खतम हो गई । लो जी, अभी तक जो आदमी
बहुत अच्छा था, वह तुरन्त खराब
हो गया।
यही हाल शिष्य और
गुरू के सम्बन्ध में है। यदि गुरू धनवान है, और सुखी है, तो गुरू महान है,
सिद्धपुरुष भी
है। और यदि गुरू जी आपत्ति में फंस गए, तो अब वह गुरू नहीं है, और न ही उसमें कोई चमत्कार है।
अर्थात गुरू का
सब खतम हो गया । अब चलो, किसी और गुरू को
तलाशा जाए । इस गुरू में तो कुछ भी नहीं बचा है ।
इसका मतलब यह हुआ
कि अज्ञानी मनुष्य, न तो किसी देवी
देवता का सच्चा भक्त होता है और न ही किसी
गुरू का शिष्य होता है, और न ही किसी का
सच्चा रिश्तेदार होता है, और न ही किसी का
भाई या मित्र होता है ।
कुल मिलाकर यह
सिद्ध हुआ कि शास्त्र तथा महात्मा ठीक ही कह रहे हैं कि *"यहां कोई किसी का नहीं है "* । आवश्यकता पड़ने पर मुसलमान अपनी मुसलमानियत इंसानियत छोड़
देते हैं, और हिन्दू लोग अपने देवी
देवता, पूजा, संस्कृति आदि सबकुछ छोड़ देते हैं ।
इसलिए महात्माओं
ने कहा कि *"दाता एक राम भिखारी
सारी दुनियां"* ।
भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से गीता के 17
वें अध्याय के अन्त में 28 वें श्लोक में कहा है कि
*"अश्रद्धया हुतं
दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् ।*
*असदित्युच्ते पार्थ न च
तत् प्रेत्य नो इह ।।*
हे पार्थ ! हे
पृथानन्दन! अश्रद्धा से किया गया हवन,
अश्रद्धा से दिया गया दान, अश्रद्धा से किए गए तप, व्रत, उपवासादि,
अर्थात अश्रद्धा से किया गया अच्छा से अच्छा
सत्कर्म भी असत् ही है ।
अर्थात व्यर्थ है, क्योंकि अश्रद्धा से
करनेवाले स्त्री पुरुषों को सत्कर्म का फल न तो इस जन्म में ही मिलता है, और न ही मरने के बाद भी मिलता है ।
*यदि कोई हिन्दू परम्परा
से चली आ रही पूजा अर्चना को छोड़कर किसी मस्जिद, मजार, मौलाना के पास
जाता है तो वह अश्रद्धालु हिन्दू कितनी भी चादर चढ़ा दे, कितनी ही बार कुछ भी कर ले, उसे मजारों से, मस्जिदों से न इस जन्म में कुछ मिलेगा, और न ही मरने के बाद ही कुछ मिलेगा ।*
जो अपना था, वो तो पहले ही छोड़ चुके हैं, और जो अभी स्वीकार किया है, उसके बारे में कुछ पता ही
नहीं है । तो क्या मिलेगा ?
अर्थात कुछ नहीं ।
इसी प्रकार यदि
कोई मुसलमान अपनी परम्परा को छोड़कर हिन्दूओं के या ईसाइयों के, या किसी अन्य के देवता के यहां जाता है,
तो उस मुसलमान को न तो इस जन्म में कुछ मिलेगा, और न ही मरने के बाद भी कुछ मिलेगा ।
एक दो रसखान,
रहीम आदि को छोड़ दिया जाए । क्यों कि ये सब
अपवाद हैं ।इनने किसी लोभ से श्री कृष्ण की आराधना नहीं की है
औलाद, औरत, सोहरत, जमीन, रोटी के लिए मजहब को छोड़कर, खुदा की इबादत को छोड़कर हिन्दुओं के देवी
देवताओं की शरण में जानेवाले मुसलमान अपने मजहब के, खुदा के अश्रद्धालु लोग हैं ।
इसी प्रकार अपने वेदों, पुराणों, धर्मशास्त्रों
में विश्वास न करनेवाले हिन्दू, मजारों में, मस्जिदों में शरण
लेनेवाले अपने धर्म में अश्रद्धालु हैं ।
इन दोनों के दुख
कभी भी कम नहीं होनेवाले हैं । क्यों कि मजार और मस्जिदों में आए हुए हिंदू को
देखकर खुदा भी जानते हैं ,और पीर भी जानते
हैं कि ये परेशान इंसान है ।
ये जहां पैदा हुआ
है, पला बढ़ा है, मान्यता मानी है, जब ये वहां का नहीं हुआ, तो यदि इसकी मनोकामना पूर्ण नहीं हुई तो यह कहीं का नहीं रह
जाएगा ।
इसलिए इस भिखारी
को कुछ न कुछ तो दे ही देना चाहिए । लेकिन ये न तो सच्चा हिन्दू बन पाया है,
और न
ही सच्चा मुसलमान बनेगा ?
हिन्दुओं के देवी देवताओं की शरण में आए हुए मुसलमान को
देखकर यहां भी यही सोचा जाएगा । हमारे देवता भी भिखारी को खाली हाथ नहीं लौटाते
हैं ।
क्यों कि वे भी
देखते हैं कि रात दिन जन्म से अभी तक तो मुसलमान था, अब चलो ठीक है । दरवाजे में आए हुए को खाली क्यों लौटाया
जाए ।
जैसे भिखारियों
को कोई मतलब नहीं होता है कि कौन कैसा है , उसी प्रकार से बच्चों के लिए ,परिवार के लिए, तथा अपने लिए ,नियम धरम
छोड़नेवाले अश्रद्धालु मनुष्य को कहीं भी न तो शान्ति मिलती है ,और न ही कहीं सुख मिलता है ।
-आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, वृन्दावनधाम
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति 125वां जन्म दिवस - घनश्याम दास बिड़ला और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान जरूर बढ़ाएँ। सादर ... अभिनन्दन।।
ReplyDeleteभगवान के लिए भगवान के पास जाने वाले कोई बिरले ही होते हैं
ReplyDelete