समाज सेवा और राष्ट्र सेवा में सीधे अन्यायी सरकार से विरोध लेना होगा
*प्रश्न - संगठन का गठन और संगठन की उपादेयता, उपयोगिता राष्ट्रसेवा में कैसे उपयोगी हो यह जानना चाहता हूँ
सुरेन्द्र शास्त्री, राजा बलवंत सिंह महाविद्यालय, आगरा उ0प्र0
*उत्तर == आपका प्रश्न सर्वोत्तम है ।
आजकल के लोग कहते हैं कि " राजनीति में धर्म नहीं होना चाहिए"
किंतु यह सत्य है कि धार्मिक, विद्वान, तपस्वी महात्मा, ब्राह्मण और क्षत्रिय जब राजा के कार्य अकार्य को देखना बन्द कर देते हैं, और उदासीन हो कर कहने लगते हैं कि " हमें क्या लेना देना है, सब भगवान की लीला है " तो राजा निरंकुश हो जाता है ।
एक दिन ऐसा आता है कि फिर वही राजा, व्यभिचारी लोभी कामी, अन्यायी लोगों को एकत्रित करके ब्राह्मणों और तपस्वी महात्माओं को न तो धर्म करने देता है और ब्राह्मणों, तपस्विओं का दमन करके निर्बल असहाय प्रजा के धन को तथा अधिकारों को बलात् छीन लेता है ।"
भागवत के चौथे स्कन्ध के 14 वें अध्याय के 40 वें और 41 वें श्लोक में अधार्मिक राजा वेन के धार्मिक अनुष्ठान बंद कराने के बाद सभी विद्वान तपस्वी ब्राह्मणों ने एक संगठन बनाते हुए आपस में विचार विमर्श करते हुए कहा कि
*चोरप्रायं जनपदं हीनसत्वमराजकम् ।
लोकान् नावारयञ्छक्ताः अपि तद् दोषदर्शिनः ।।41।।*
विद्वान तपस्वी ब्राह्मणों तथा महात्माओं के राजकाज से उदासीन होने के कारण, सारे राज्य की प्रजा प्रायः चोर हो गई । राजा अन्यायियों का साथी हो गया,इसलिए निर्दोषियों को सजा और दोषियों को राजदण्ड से मुक्ति मिलने लगी ।
प्रजा निर्बल हो गई ।राजा होते हुए भी ऐसा लगता था कि जैसे सम्पूर्ण राज्य बिना राजा के है । "
जिस देश का कोई राजा नहीं होता है और प्रजा के बलवान लोग निर्बलों की स्त्रियों का तथा निरीह प्रजा के धन का बलात् उपयोग करते हैं, इसी को अराजकता कहते हैं "।
यद्यपि विद्वान तपस्वी ब्राह्मण, तथा तपस्वी महात्मा और क्षत्रिय इस अत्याचार को रोक सकते थे ।लेकिन वे उदासीन होकर कहने लगे कि" हमें क्या लेना देना है" ।
इनकी उदासीनता के कारण राजा इनपर ही अत्याचार करने लगा था ।तब सबने एकत्रित होकर कहा कि शास्त्रों में कहा है कि --
*" ब्राह्मणः समद्रक् शान्तो दीनानां समुपेक्षकः ।
स्रवते ब्रह्म तस्यापि भिन्नभाण्डात् पयो यथा ।।41 ।।*
ब्राह्मण वेदों का कितना भी बड़ा विद्वान हो, सभी जीवों में समान दृष्टि रखता हो, योगियों के समान उसका मन शान्त हो,लेकिन ऐसा ज्ञानी ब्राह्मण यदि राजा के द्वारा किए जाने वाले अत्याचार से पीड़ित प्रजा को दुखी देखते हुए भी शान्ति से देखता हुआ उपेक्षाकरता है तो उसका वेदज्ञान बुद्धि से ऐसे धीरे धीरे बह जाता है,जैसे छिद्रवाले घड़े से धीरे धीरे पानी बह जाता है ।
अर्थात ऐसा वेदज्ञानी ब्राह्मण का वेदज्ञान व्यर्थ है,तथा तपस्वी महात्मा का ऐसा तप व्यर्थ है,तथा क्षत्रिय की शूरबीरता व्यर्थ है,जो राजा के द्वारा किए जाने वाले अत्याचार से पीड़ित प्रजा को देख रहे हैं ।
जब राजा के अत्याचारों को रोकने में समर्थ ब्राह्मण और महात्मा एकत्रित होकर नहीं रोकेंगे, तो मनबढ़ा राजा इनपर भी अत्याचार ही करेगा ।फिर कितने दिन वेद पढ़ लेंगे और कहां तपस्या कर लेंगें ?
स्वामी श्री करपात्री महाराज तथा ज्योतिष्पीठ के शंकराचार्य श्रीकृष्णबोधाश्रम जी महाराज, पुरी के शंकराचार्य श्री निरंजन देव तीर्थ जी महाराज आदि सभी तपस्वी,ब्रह्मज्ञानी समदर्शी महात्मा थे ।
लेकिन सबकुछ त्यागकर आजादी के बाद गौहत्या कानून के लिए नेहरू सरकार से,इन्दिरा सरकार से लड़ रहे थे ।
काशी के सभी विद्वानों ने इन महात्माओं का साथ दिया था ।कितनी बार जेल जा रहे थे,इन्दिरा सरकार के अत्याचार सह रहे थे ।लेकिन पीछे नहीं हटे
करपात्री जी महाराज पर जेल में ही इन्दिरा गांधी के अनुमोदन से लाठियां बरसाईं थीं ।उसमें स्वामी जी की आंख चली गई थी ।लेकिन वे फिर भी नहीं माने ।
आज जो कहीं गोहत्या निवारण हेतु कानून बना है ,वह सब उन्हीं महात्माओं और ब्राह्मणों की देन है ।
हमारे पूज्य गुरूदेव श्री राजवंशी द्विवेदी वृन्दावन सुनाया करते थे तो रोम रोम कांप जाता है ।
" समाज सेवा और राष्ट्र सेवा में सीधे अन्यायी सरकार से विरोध लेना होगा ।प्राण भी जा सकते हैं । क्यों कि अन्याय करनेवाला हिंसक ही होता है । सबकुछ त्यागना होगा ।तभी आज राष्ट्र सेवा और प्रजा सेवा हो पाएगी ।
आज के अत्याचारों का विरोध करने के लिए आमरण संकल्प चाहिए ।बीरता चाहिए ।समूह चाहिए ।
पत्नी के आंचल में छिपनेवाले,बच्चों की किलकारियों में खुश होनेवाले , एक एक रुपया और एक गज जमीन के लिए लड़नेवाले लोगों का मार्ग नहीं है ये । "
उत्तिष्ठ,जाग्रत,वरान् निबोधत " उठो ,जागो और श्रेष्ठ मार्ग और श्रेष्ठ गुरु जनों का वरण करो ।।राधे राधे ।
*-आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, वृन्दाबन धाम*
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