सतयुग ,त्रेता , द्वापर और कलियुग के मनुष्यों में इतना अंतर है कि सतयुग के मनुष्य, माता पिता और शास्त्रों के वाक्यों को परमहितकारी मानकर सुनते ही वैसा ही करते थे ,जैसा कहा जाता था ।
इसलिए राजा को किसी को दण्ड देने का अवसर ही नहीं आता था ।
त्रेतायुग में भी रावण आदि कुछ ही लोगों को छोड़कर सभी मनुष्य अपनी जाति के अनुसार धर्म का पालन करते थे ।
वे माता पिता, गुरु की आज्ञा तो मानते ही थे ,अपितु अपने मुख से कही गई बात का भी प्राण देकर भी पालन करते थे ।भगवान राम ,का प्रागट्य त्रेतायुग में ही हुआ था । इसके बाद द्वापर के अंत में दुर्योधन के शरीर में कलियुग ने प्रवेश किया ।
बस यहीं से अपने घर के बड़ों का अनादर, गुरुजनों का अनादर ,शास्त्रों का अनादर तथा अपने ही परिवार की स्त्रियों का अनादर ,अपने ही भाइयों के भाग को छीनकर दुखी करना आदि सब प्रारम्भ हो गया था ।
अब वर्तमान की स्थिति का वर्णन करना ही व्यर्थ है ।क्यों कि प्रत्यक्ष ही दिख रहा है ।
महाभारत के विराटपर्व के अनुसार *मात्र दुर्योधन के शरीर में ही कलियुग ने प्रवेश करके भीष्म ,द्रोण आदि से अधर्म करवा लिया था ।*
अब तो हर स्त्री पुरुष के हृदय में कलियुग का प्रवेश है तो धर्म की बात करना ही कठिन हो गया है ।आचरण की तो बात ही बहुत दूर है ।
धर्म और संयम नियम की बात का विरोध तो शाशन ही करता है ।दण्ड देता है तो भला कौन धर्म की बात करेगा ?
लेकिन एक बात भगवान राम ने वन में साथ में जाने को तैयार सीता जी से जो कही है वह तो चारों युगों में समान रूप से फल देनेवाली है ।
रामचरित मानस अयोध्याकाण्ड के 63 वें दोहे को देखिए ।
*"सहज सुहृद गुरु स्वामि सिख जो न करइ सिर मानि ।*
*सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि ।।*
इस दोहे के प्रत्येक शब्द को ध्यान से पढ़ना इसी में ऊपर की पूरी लाइन में कर्म कहा गया है और नीचे की लाइन में उस कर्म का तुरंत फल कहा गया है ।
" सहज सुहृद , गुरु और स्वामी की सीख को जो स्त्री पुरुष नहीं मानते हैं, ऐसे स्त्री पुरुष चाहे जिस आयु के हों ,वहां से ही दुख का प्रारंभ हो जाता है और मरते दम तक पछताते पछताते अघा जाते हैं ।थक जाते हैं ।
यहां तक कि उनको मृत्यु के कुछ क्षणों तक भी यही स्मरण आता है कि यदि उस समय हमने सहज सुहृद अर्थात निःस्वार्थ प्रेम करनेवाले माता पिता पत्नी की बात ,गुरु की बात ,तथा स्वामी की बात अर्थात जिससे अपनी आजीविका चलती है , इन सबकी बातें मान लीं होतीं तो आज शारीरिक ,मानसिक सामाजिक इतना दुख नहीं मिलता ।
संसार में कहीं भी चले जाओ , परिचित अपरिचित सभी छोटे बड़े स्त्री पुरुष आपको गलत करते हुए देखकर अवश्य टोकेंगे और रोकेंगे ।
क्या करना चाहिए ,ये भी बताएंगे ।
यदि आपने नहीं माना तो परिणाम भी थोड़े ही दिनों बाद दिखाई देने लगता है ।
अच्छा, एक बात और है कि जो अच्छे लोगों की बात नहीं मानता है ,उसको अच्छे लोग टोंकना तो बंद कर ही देते हैं , बल्कि उसको त्याग ही देते हैं ।
जिसको अच्छे लोग त्याग देते हैं., फिर उसे अपने जैसे लोगों के साथ ही उठना बैठना पड़ता है । इसी को कुसंग कहते हैं ।
आपत्ति आने पर बुरे लोग तो साथ देते ही नहीं हैं , और अच्छे लोगों ने तो पहले ही त्याग दिया था ।
अब वह अकेले ही रोते बिलखते दुख भोगते हुए मरे हुए माता पिता ,गुरू की बात सबसे बताते बताते स्वयं भी मर जाता है ।
यह बात भगवान राम ने चारों युगों के लिए समान रूप से कही है ।
*कलियुग में उम्र बहुत ही कम है ।लेकिन जब दुखी होंगे तो वही उम्र कटाई नहीं कटेगी ।*
अब निर्णय मानना न मानना तो आपके ही हाथ में है ।
क्यों कि आप कुछ भी करने में स्वतन्त्र हैं लेकिन दुख भोगने में स्वतन्त्र नहीं हैं ।वो तो भोगना ही पड़ेगा ।
*-आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, श्रीधाम वृन्दावन*
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