शरीर किस काम का है ?
माँ के गर्भ में शरीर का निर्माण होता है । शरीर एक द्रव्य है । वस्तु है ।मनुष्य के शरीर का नाम रखा जाता है ।
अपनी इच्छा के अनुसार ,जाति और धर्म के अनुसार मनुष्य ही इस शरीर का नाम रखते हैं ।
नामों की भी परंपरा है । जो कुछ अच्छे और प्रसिद्ध स्त्री पुरुष हो गए हैं ,उन्हीं के नाम पर लोग अपने बच्चों का नाम रखते हैं ।
मनुष्य के अतिरिक्त कोई भी पशु पक्षी अपने बच्चों का नाम रखना नहीं जानते हैं ।
उनके बच्चे अपनी माँ की ध्वनि पहचानते हैं ।पशु पक्षी आदि सभी जीव बिना नाम के ही एक दूसरे की आवाज से पहचानते हैं ।मनुष्य में ये ध्वनि पहचानने का गुण बहुत कम है ,इसलिए नाम रखते हैं ।
शरीर का नाम जो रख दिया जाता है ,फिर वह स्त्री पुरुष उसी नाम से आजीवन जाने जाते हैं ।
नाम के बिना मनुष्य जाति का व्यवहार नहीं चल पाता है ,इसलिए गाय ,भैंस ,कुत्ता ,बिल्ली सबका नाम रख लेता है ।
अब वह बड़े होकर ऐसी कामना करने लगता है कि " मेरा नाम सारे संसार में हो जाए " इसलिए वह कभी कभी बहुत बड़ा गुंडा निर्दयी पुरुष भी हो जाता है ।
कुछ लोग अच्छे लोगों के जैसा नाम करने के लिए परोपकार भी करने लगते हैं ।
गौशाला ,पाठशाला, धर्मशाला ,चिकित्शालय आदि के द्वारा दूसरों की सेवा करने में अपना जीवन पूर्ण कर देता है ।
अपना नाम सभी करना चाहते हैं ।इसलिए मनुष्य अपने स्वभाव के अनुसार बहुत परिश्रम करते हैं ।
कुछ तो ऐसे महात्मा हो गए हैं कि न तो उनने जीवन भर किसी से बात की ,और न ही कभी किसी का परोपकार किया है ।जीवनभर मौन धारण किया, और भगवान का भजन किया है ।फिर भी उनका नाम हो गया है ।
उन्हें सबकोई जानता है ,लेकिन वह महात्मा किसी को नहीं जानते हैं । अर्थात यह शरीर रुपयों के समान है ।
यदि रुपया खर्च न किया जाए तो रखा हुआ रुपया मनुष्य के किसी काम का नहीं है ।
या तो इस शरीर का स्वयं उपयोग कर लीजिए ,या फिर किसी को उपयोग करने के लिए उसकी सेवा में दे दीजिए ,या फिर न स्वयं उपयोग करिए ,और न ही किसी की सेवा कीजिए ,बस एक स्थान में बैठकर सबसे संबन्ध ,व्यवहार समाप्त करके मात्र भगवान का नाम जाप कीजिए ।कुछ तो करिए । नहीं तो रुपयों की तरह रखे रखे स्वयं ही नष्ट हो जाएगा ।
एक दिन ऐसा आएगा कि न आप इस शरीर का उपयोग कर पाएंगे और न ही किसी दूसरे के काम का रह जाएगा ।
भागवत के छटवें स्कंध के 10 वें अध्याय के 8 वें श्लोक में दधीचि ऋषि ने कहा है ।
वृत्रासुर को मारने के लिए वज्र बनाने के लिए इन्द्र भगवान दधीचि ऋषि के पास जाकर बोले कि " हमें आपका शरीर चाहिए ।आपके शरीरदान से वृत्रासुर का बध होगा तो अनेक जीवों के प्राण बचेंगें " ।
यह सुनते ही दधीचि ऋषि ने प्रसन्न होते हुए कहा कि
*योsध्रुवेणात्मना नाथा न धर्मं न यशः पुमान् ।
ईहेत भूतदयया स शोच्यः स्थाविरैरपि ।।*
हे देवताओ ! जिस मनुष्य ने भविष्य में नष्ट हो जानेवाले अनिश्चित मृत्युवाले शरीर से न तो संयम नियम करके अपने धर्म का पालन किया है ।
मात्र सोया खाया कमाया है । और न ही किसी भी जीव पर दया करके उसकी तन से या धन से सेवा की है ।
और न ही कुछ सामाजिक काम करके या तप करके किसी भी प्रकार का यश प्राप्त किया है ।
ऐसा मनुष्य मूर्ख ही है ।वह तो वृक्षों से भी गया बीता हुआ है ।क्यों कि वृक्ष जड़ होते हुए भी सबके किसी न किसी रूप में काम आ ही जाते हैं ।
जो स्त्री पुरुष न समय से जागते हैं और न ही समय से सोते हैं । न ही अपने धर्मपालन के लिए शरीर से कष्ट उठा सकते हैं ।न ही किसी के दुख में सहयोग करते हैं ।
धन के लिए अथक प्रयास करते हुए खूब धनवान हो जाते हैं लेकिन उनका धन किसी के काम नहीं आता है ।
तो ऐसे स्त्री पुरुषों का शरीर किस काम का है ?
ऐसे स्त्री पुरुषों से अच्छे तो पशु पक्षी पेड़ पौधे पत्थर भी अच्छे हैं ।वे सबके काम तो आते हैं ।
राधे राधे
*-आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, श्रीधाम वृन्दाबन*
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