खूरपका ( मुहँपका ) ( Foot Mouth Disease )
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यह रोग भारत में ही नही , ब्लकी विश्व के अन्य देशों में भी एक अत्यन्त संक्रामक रोग माना जाता हैं । यह रोग फटे खुर वाले पशुओं में प्राय: पाया जाता हैं । यद्यपि यह रोग संाघातिक नहीं हैं । भारतवर्ष में शायद ही कोई पशु इस रोग से मरता हो किन्तु यह छूत का रोग होने के कारण यह वर्षभर चलता रहता हैं और हर देश में होता हैं इस रोग की छूत हवा के साथ सभी पशुओं तक तथा सभी उम्र के पशुओं तक पहुँच जाती हैं । इस रोग के रोगी के फफोलें ठीक होने के बाद भी विषाणु पशु के खरोंट ( खुरन्ड ) मे ३० दिनों तक जीवित रहते हैं जब खरोंट उतरकर घास आदि में गिर जाते हैं तो घास में भी विषाणु लगभग १५ दिनों तक जीवित रहते हैं । भूसी व चोकर में तो विषाणु ४ महीने तक जीवित रहते हैं । किन्तु गर्मी व धूप से ये आसानी से मर जाते है । १% सोडियम हाइड्रोक्साइड , ४% सोडियम काबोर्नेट और १%,सोडियम फार्मोंलिन जैसे क्षार इनको मारने में सर्वाधिक सफल सिद्ध हुए हैं । इस रोग के शिकार पशुओं में दूधारू पशुओं का दूध कम हो जाता हैं और मैहनती पशुओं की कार्यक्षमता घट जाती हैं ।
लक्षण – खूरपका बिमारी से पीड़ित पशु सुस्त व शिथिल पड़ जाता हैं।समस्त शरीर में कँपकँपी होने लगती हैं साधारण बुखार हो जाता हैं , पशु के मुँह,सींग व पैरों का तापमान बढ़ जाता हैं । कान ठन्डे पड़ जाते हैं और साँसों की गति बढ़ जाती हैं , पशु के मुँह में लार व झाग दिखाई देने लगते हैं । पशु के मुँह से चप- चप की आवाज़ आने लगती हैं वह अपना मुँह बार- बार खोलता है और बन्द करता हैं यह दशा २-३ दिनों तक रहती हैं । दो दिन के बाद पैरों में छालें पड़ जाते हैं ,पैर मवाद से भर जाते है बुखार कम हो जाता हैं । ज्यों – ज्यों बिमारी बढ़ती जाती है , जबड़ों , मुँह ,जीभ में छालें बढ़ते जाते हैं इसी प्रकार खुरों के बीच में घाव बढ़ते है और उनमें कीड़े पड़ जीते है । खूरपका रोग व चेचक रोग को पहचानने में समस्या हो जाती हैं।चेचक में केवल मुँह में छालें पड़ जाते हैं और दस्त आरम्भ हो जाते हैं किन्तु खूरपका में ऐसा नहीं होता हैं । इसमें सिर्फ़ मुँह में और खुर में ही छालें पड़ते हैं । इस रोग के छालें हमेशा पीली – सी झिल्ली से ढके रहते हैं अन्य बिमारी के छालें लाल रहते हैं यह इस रोग की विशेष पहचान हैं । इस रोग के विषाणु मुँह , जीभ , आंत अथवा खुरों के बीच की खुली जगह में होते हैं और इसी प्रकार किसी अंग की चोट के रास्ते शरीर में घुस जाते हैं । यदि किसी स्वस्थ पशु को कोई छूत की बिमारी लगी हैं तो उसके लक्षण दिखने मे २ से ५ दिन तक का समय लग जाता हैं । शुरूआत में पशु अत्यधिक सुस्त रहता हैं उसे भूख नहीं लगती हैं तथा बुखार आ जाता हैं जिससे उसके शरीर का तापमान १०२ डिग्री से १०५ डिग्री तक हो जाता हैं किन्तु इन लक्षणों से प्राय: इस रोग का पता नहीं चलता हैं । कुछ समय के बाद पशु अचानक ही लड़खड़ाने लगता हैं , उसके होंठ लटक जाते हैं और मुँह से लार टपकने लगती हैं । ये लक्षण एक साथ समूह के अनेक पशुओं में प्रकट होते हैं । खुरों के साथ जुड़ी हुई पैरों की खाल में फफोलें पड़ जाते हैं , पशु बार- बार पैरों को झटका मारता हैं और कभी- कभी जीीभ से चाटता हैं । फिर उसके मुँह व जबड़ों तथा जीभ पर भी छालें पड़ जाते हैं । यह छालें १८ से २४ घन्टे के अन्दर फूट जाते है , छालें फुटने पर उनमें से जो पानी निकलता हैं , उसमें इस रोग के विषाणु भरे होते हैं । छालों के स्थान पर लाल- लाल घाव बन जाते हैं रोगी पशु की हालत दिन- प्रतिदिन बिगड़ती जाती हैं । क्योंकि वह ठीक प्रकार से खा- पी नहीं पाता हैं । दूधारू पशु का दूध घट जाता हैं और रोग बढ़ने पर पशु के नथुनों में भी छालें पड़ जाते हैं ।
विशेष — वैसे तो यह रोग वर्षभर चलता रहता हैं पर मार्च , अप्रैल ,अक्तुबर,दिसम्बर में विशेष कर हो जाता हैं । इस रोग में हमारे देश में पशु कम मरते है , वैसे तो अपनी शुद्ध देशी गाय में यह रोग होता नहीं हैं यह नश्ल बदलकर जो दौगली गाय है या उनमें जर्सी आदि का असर है तो यह रोग हो जाता हैं । लेकिन जो रोगी हो जाता है तो उसकी दूध उत्पादन क्षमता घट जाती हैं व सन्तानोत्पत्ति के लिए अयोग्य हो जाता हैं । भैंस के १ साल से छोटे बच्चों को यह रोग कम होता हैं और डेढ़ साल से तीन साल के पशुओं को यह रोग बहुत जल्दी लगता हैं तथा इस आयु में यह रोग बार- बार हो जाता हैं तथा बजे पशुओं या बूढे पशुओ में कम होता हैं तथा उन पर दूबारा रोग हमला नहीं करता है यह सभी प्रकार के पशु दूधारू या अन्य सभी को होता है लेकिन भैंसों का दूध तेज़ी से घटता है और गाय पर कम असर होता हैं । यह रोग ८ दिन से लेकर २८ दिन तक चलता रहता हैं जबकि यह रोग कमज़ोर पशुओं में कम होता हैं अच्छे मज़बूत पशुओं में ज़्यादा होता हैं ।
रोग के बचाव –
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१ – रोगी पशु को स्वस्थ पशुओं से तुरन्त अलग कर देना चाहिए ।
२ – रोगी पशु को बाँधने के स्थान चूना व फिनाइल डालकर रोगाणमुक्त कर देना चाहिए ।
३ – रोगी पशुओं को गन्दगी व सीलनयुक्त स्थान पर नहीं रखना चाहिए ।
४ – रोग फैलने के मौसम में सभी पशुओं के घावों व खुरों पर कपूरादि तेल लगाते रहना चाहिए ।
५ – रोगी पशु की टहल करने वाले व्यक्ति को दूसरे पशुओं के पास नहीं जाना चाहिए ।
६ – टहल करने वाले को अपने कपड़े ऊबाले पानी में धोकर रोगाणु मुक्त होना चाहिए ।
७ – इस रोग के टीके लगाने चाहिए ।
८ – पशुओं को पैरडुब्बी द्वारा बचा जा सकता है और बीच- बीच में कराते रहना चाहिए ।
९ – रोगी पशु का झूठा पानी- खाना अन्य पशु को नहीं देना चाहिए ।
# – खूरपका रोग मे पशुपालकों को यह ध्यान रखना चाहिए । चूँकि यह रोग हवा के माध्यम से भी फैलता हैं , जिधर से हवा चल रही हो उधरबिमार पशुओं को न बाँधे नहीं तो स्वस्थ पशु बिमार हो जायेंगे स्वस्थ पंशु को बिमार पशु की छुई हूई हवा न लगे । पशु उन्हें जौं या चने का सत्तु पिलाना चाहिए । अलसी की लई खिलाने से पशु की शक्ति कम नहीं होती हैं । चावल का माण्ड देने से भी आराम मिलता हैं । लाल दवा मिला पानी पिलाना भी गुणकारी हैं ।
# – खूरपका में बुखार की तीन अवस्थाएँ होती है तो उसका इलाज की भी तीन अवस्थाओं में होना चाहिए , बुखार के साथ- साथ इस रोग की प्रथम अवस्था चालू हो जाती हैं जिसकी दवा इस प्रकार हैं –
१ -औषंधि – कालीमिर्च पावडर २ तौला , गाय का घी २५० ग्राम ,गुनगुना करके दोनो को आपस में मिलाकर पशु को सुबह- सायं दिन में दो बार ३-४ दिन तक देने से लाभ होता हैं ।
२ – औषधि – पीपल के पेड़ के ऊपर जो नीम का का पेड़ उगा हो उसकी पत्तियाँ २५० ग्राम , पानी में पीसकर उसमें गाय का घी २५० ग्राम गुनगुना करके मिलाकर पशु को पिलाने से लाभ होता हैं ।
३ – औषधि – पुराना गुड १ किलो , सौँफ २५० ग्राम , गरमपानी २ लीटर मिलाकर पिलाने से लाभँ होता हैं ।
४ – औषधि – घुँघुची लाल ( गुञ्जाफल )की २५० पत्तियाँ पानी में पीसकर देने से बुखार उतर जाता हैं ।
५ – औषधि – चावल का माण्ड २ किलो , पुराना गुड १ किलो मिलाकर पिलाने से बु खार उतर जाता हैं ।
६ – सफ़ेद तिल को पानी में पीसकर पिलाने से पशु का बुखार उतर जाता हैं ।
७ – चिरायता पावडर ३ तौला , साँभरनमक पावडर ३ तौला , कलमीशोरा १५ माशा और डेढ़ छटांक गुड़ मिलाकर पानी मे मिलाकर पिलाने से लाभ होता हैं ।
८ – पैरों के घावों पर ५ भाग कोलतार और १ भाग नीला थोथा मिलाकर तैयार की गई मलहम लगाई जाती हैं , जोकि किटाणुनाशक , विषमारक तथा घावपूरक होती हैं ।
९ – बोरिकएसिड पावडर गरम पानी में मिलाकर उससे पशु का मुँह , थन तथा खुरों को धोवें और उसी से सेकें । गि्लसरीन में थोड़ा-सा पावडर मिलाकर मुँह के छालों में लगाने से गुणकारी होता हैं ।
खूरपका की द्वितीय अवस्था –
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# – बुखार उतर जाने के बाद घाव धोने की आवश्यकता पड़ती हैं । पशु उस अवस्था में चलने- फिरने में असमर्थ हो जाता हैं । घावों को धोने के लिए इन दवाओं का प्रयोग करना चाहिए —
१ – फिटकरी को गरम पानी में डालकर पशु का मुँह व खुर धोने चाहिए ।
२ – बबूलछाल , ढाकछाल , जामुनछाल, आँवलाछाल ,और नीम की छाल सममात्रा में लेकर काढ़ा बनायें ।इन दवाओं के काढें से पशु के पैरों को धुलवायें काढ़ा बनाने कि विधी इस प्रकार हैं – सभी दवाओं को पानी में डालें जितने पानी में डूब जायें उससे डबल पानी में पकायें । जब तीन हिस्सा पानी जलकर एक हिस्सा पानी रह जाये तब धुलाई का कार्य किया जायें और मुँह व पैर में ज़ख़्म यदि अधिक हो गये हो तो उन्हें काढ़े से भलीप्रकार से धोना चाहिए । शहद या शीरा हो तो अच्छा है नहीं तो तिल या नारियल तेल या गाय का घी २५० ग्राम में फिटकरी पावडर , कत्था , सुहागाफूला, खाने का सोडा आधा- आधा टीस्पुन ( चम्मच ) मिलाकर दवा का लेप करना चाहिए । दवा लगाकर कपड़े की पट्टी बाँधकर उसपर मिट्टी लगा देनी चाहिए जिससे उसमें गोबर न घुसे और पशु मुँह से खोल न दें ।
# – घाव पर मरहम भी लगा सकते है , मरहम इस प्रकार बनायें – –
१ – औषधि – अलसी का तेल २५० ग्राम , कपूर १ छटांक , डेढ़ तौला तारपीन का तेल , तीनों को आपस में मिलाकर घाव पर लगाने से आराम आता हैं ।
२ – औषधि – तुतिया १ भाग , अलकतरा १० भाग , दोनों को मिलाकर घाव पर लगाकर पट्टी बाँधने से आराम आता हैं ।
३ – औषधि – नीम की पत्तियों को पानी में पीसकर घाव पर लगाने से आराम आता है ।
४ – औषधि – बर्रे का डढुआ ( बर्रे के दानों को मिट्टी के बर्तन में बन्द कर आग में पकाकर तेल निकाले ) इसके बाद पशु के घाव पर लगायें तो आराम आता हैं ।
५ – आयुर्वेद में डुब्बी प्रणाली ( Foot Bath ) सर्वोत्तम मानी गई हैं । इसकी विधी इस प्रकार हैं – –
गौशाला या डेयरी या पशुओ के बँधने के स्थान पर या आसपास में एक ऐसा स्थान बनाना चाहिए जो १२ फूट लम्बा व १ फ़िट गहरा रपटा बनाना चाहिए यानि गड्ढा लम्बाई की दिशा में जिधर से शुरूआत होती है वहाँ हर फ़ुट पर डेढ़ – डेढ़ इंच गहरा करते चले और बीच तक गहरा करें और अन्तिम तक बीच से डेढ़- डेढ़ इन्च गहराई कम करते चले आये और साईड में दिवार दो-दो फ़िट उँचा कर दें और गड्ढे के अन्दर सिमेन्ट कर देना चाहिए जब-जब पशुओं में खूरपका रोग आये इस गड्ढे में पानी भर कर उसमें फिनाइल या लाल दवा पौटेशियम परमैग्नेट डालकर पशुओं को इस पानी में से निकालना चाहिए इससे रोग की रोकथाम होगी ।
६ – औषधि – बबूल छाल ( कीकर छाल ) २५० ग्राम , जवासे का हरा पौधा १ छटांक , फिटकरी ११ छटांक , हराकसीस आधा छटांक , कत्था आधा छटांक , सबको लोहे के बर्तन मे ४ लीटर पानी में उबालें । जब तीन चौथाई पानी रह जाये तो कपड़े से छानकर थोड़ा – सा कपड़े धोने का सोडा मिला दें । यदि उक्त दवाओं में एक – आध दवा न मिले तो कोई हर्ज नहीं हैं परन्तु कीकर छाल ज़रूरी हैं । काढ़े से मुँह व खुरों को प्रतिदिन पिचकारी या प्रेशर से धोए तो अच्छा रहेगा ।
कीटाणु नाशक औषधियाँ —
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पशु के खुरों में कोई लेप या मरहम आदि लगाने से पहले यह देख लेना चाहिए कि घाव व खुरों में कीड़े तो नहीं पड़ गये हैं यदि ऐसा है तो कीटाणु नाशक दवा लगाकर दवा लगाकर उनके मर जाने पर दवा- मरहम लगाकर पट्टी बाँधनी चाहिए –
१ – औषधि – फिनाइल का फोहा बाँधे या फिनायल से पानी में मिलाकर उससे पैर धोये ।
२ – औषधि -मैथिलेटिड स्प्रिट भी उत्तम कीटाणु नाशक है साथ ही घावों को भी भरती हैं । दवा को खुरों के बीच तक पहुचानी चाहिए ।
३ – औषधि – मुँह तथा थन आदि में उपर्युक्त दवा का प्रयोग नहीं किया जाता हैं इसके स्थान पर लाल दवा के घोल से धोना चाहिए ।
४ – औषधि – जामुन तथा अनार की छाल १-१ पाँव तथा एक पाँव कीकर के पत्ते या छाल ४ लीटर पानी में डालकर पकायें । जब एक चौथाई पानी शेष रहने पर छानकर ठन्डा होने पर उससे पशु के मुँह , थन एवं खुरों को धोयें । यह दवा भी उत्तम कीटाणु नाशक हैं ।
५ – औषधि – यदि खुरों के पास पैरों में माँस बढ़ जायें तो उस पर तुतिया रगड़ना सर्वोत्तम एवं लाभकारी हैं ।
६ – औषधि – यदि सुम गिर जाय तो तुतिया १ भाग , फिटकरी २ भाग और कोयला ४ भाग – सभी को बारीक पावडर करके कपडछान कर मिलाकर घाव पर बुरक देना चाहिए । और पट्टी बाँध देनी चाहिए । यह । अत्यन्त लाभकारी उपाय हैं ।
# – खूरपका ( ज्वरनाशक ) औषधियाँ –
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खूरपका बुखार को झाड़ने का मन्त्र व विधी इस प्रकार हैं —
गंग जमुन दो बहे सरस्वती , गऊ चरावै गोरखयती ।।
गोरखयती की बाचा फुरी , नामहुँ फूटे न आव खुरी ।।
जारा मारा माँद विसहरी, बडुका वौडी डिमरारूज जारी ।।
भस्म खुरखुट दोहाई नोना चमारी की आन ।।
मेरी भक्ति – गुरू की शक्ति , फुरो मन्त्र ईश्वरवरो वाचा ।।
नीम की हरी पत्तियों वाली टहनी से ५ बार मन्त्र पढ़कर पशु को झाड़ना चाहिए पशु का बुखार ठीक होता हैं ।
# – इस खूरपका रोग में पशु को तेज़ बुखार हो जाता हैं और बुखार के कारण उसके घाव भी जल्दी नहीं भरते हैं । और नहीं पशु कुछ खा – पी सकता हैं इसलिए सबसे पहले बुखार उतारने की कोशिश करनी चाहिए । कुछ ज्वरनाशक योग इस प्रकार है —
१ – औषधि – कपूर ९ माशा , कलमीशोरा १ तौला , देशीशराब ढाई तौला और पानी सवा लीटर लें । पहले कपूर को शराब में अच्छी तरह मिला लें और शीरे को पानी में घोल लें । फिर इन दोनों घोलों को परस्पर मिलाकर थोड़ी – थोड़ी मात्रा में पशु को पिलायें ।
२ – औषधि – बबूल व सिरस की छाल ५-५ तौला , हराकसीस ३ माशा , नीम के फूल और चिरायता ५-५ तौला , पीले – फूलों वाली कटेरी ५ तौला और पानी ५ लीटर लें । हराकसीस उसमें घोल दें । इनका काढ़ा थोड़ा- थोड़ा करके गुनगुना – गुनगुना ही पशु को पिलायें । यह काढ़ा बुखार की तेज़ी को कम करता हैं । इस काढ़े से पशु के थन व मुँह को धोना भी लाभकारी होता हैं ।
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यह रोग भारत में ही नही , ब्लकी विश्व के अन्य देशों में भी एक अत्यन्त संक्रामक रोग माना जाता हैं । यह रोग फटे खुर वाले पशुओं में प्राय: पाया जाता हैं । यद्यपि यह रोग संाघातिक नहीं हैं । भारतवर्ष में शायद ही कोई पशु इस रोग से मरता हो किन्तु यह छूत का रोग होने के कारण यह वर्षभर चलता रहता हैं और हर देश में होता हैं इस रोग की छूत हवा के साथ सभी पशुओं तक तथा सभी उम्र के पशुओं तक पहुँच जाती हैं । इस रोग के रोगी के फफोलें ठीक होने के बाद भी विषाणु पशु के खरोंट ( खुरन्ड ) मे ३० दिनों तक जीवित रहते हैं जब खरोंट उतरकर घास आदि में गिर जाते हैं तो घास में भी विषाणु लगभग १५ दिनों तक जीवित रहते हैं । भूसी व चोकर में तो विषाणु ४ महीने तक जीवित रहते हैं । किन्तु गर्मी व धूप से ये आसानी से मर जाते है । १% सोडियम हाइड्रोक्साइड , ४% सोडियम काबोर्नेट और १%,सोडियम फार्मोंलिन जैसे क्षार इनको मारने में सर्वाधिक सफल सिद्ध हुए हैं । इस रोग के शिकार पशुओं में दूधारू पशुओं का दूध कम हो जाता हैं और मैहनती पशुओं की कार्यक्षमता घट जाती हैं ।
लक्षण – खूरपका बिमारी से पीड़ित पशु सुस्त व शिथिल पड़ जाता हैं।समस्त शरीर में कँपकँपी होने लगती हैं साधारण बुखार हो जाता हैं , पशु के मुँह,सींग व पैरों का तापमान बढ़ जाता हैं । कान ठन्डे पड़ जाते हैं और साँसों की गति बढ़ जाती हैं , पशु के मुँह में लार व झाग दिखाई देने लगते हैं । पशु के मुँह से चप- चप की आवाज़ आने लगती हैं वह अपना मुँह बार- बार खोलता है और बन्द करता हैं यह दशा २-३ दिनों तक रहती हैं । दो दिन के बाद पैरों में छालें पड़ जाते हैं ,पैर मवाद से भर जाते है बुखार कम हो जाता हैं । ज्यों – ज्यों बिमारी बढ़ती जाती है , जबड़ों , मुँह ,जीभ में छालें बढ़ते जाते हैं इसी प्रकार खुरों के बीच में घाव बढ़ते है और उनमें कीड़े पड़ जीते है । खूरपका रोग व चेचक रोग को पहचानने में समस्या हो जाती हैं।चेचक में केवल मुँह में छालें पड़ जाते हैं और दस्त आरम्भ हो जाते हैं किन्तु खूरपका में ऐसा नहीं होता हैं । इसमें सिर्फ़ मुँह में और खुर में ही छालें पड़ते हैं । इस रोग के छालें हमेशा पीली – सी झिल्ली से ढके रहते हैं अन्य बिमारी के छालें लाल रहते हैं यह इस रोग की विशेष पहचान हैं । इस रोग के विषाणु मुँह , जीभ , आंत अथवा खुरों के बीच की खुली जगह में होते हैं और इसी प्रकार किसी अंग की चोट के रास्ते शरीर में घुस जाते हैं । यदि किसी स्वस्थ पशु को कोई छूत की बिमारी लगी हैं तो उसके लक्षण दिखने मे २ से ५ दिन तक का समय लग जाता हैं । शुरूआत में पशु अत्यधिक सुस्त रहता हैं उसे भूख नहीं लगती हैं तथा बुखार आ जाता हैं जिससे उसके शरीर का तापमान १०२ डिग्री से १०५ डिग्री तक हो जाता हैं किन्तु इन लक्षणों से प्राय: इस रोग का पता नहीं चलता हैं । कुछ समय के बाद पशु अचानक ही लड़खड़ाने लगता हैं , उसके होंठ लटक जाते हैं और मुँह से लार टपकने लगती हैं । ये लक्षण एक साथ समूह के अनेक पशुओं में प्रकट होते हैं । खुरों के साथ जुड़ी हुई पैरों की खाल में फफोलें पड़ जाते हैं , पशु बार- बार पैरों को झटका मारता हैं और कभी- कभी जीीभ से चाटता हैं । फिर उसके मुँह व जबड़ों तथा जीभ पर भी छालें पड़ जाते हैं । यह छालें १८ से २४ घन्टे के अन्दर फूट जाते है , छालें फुटने पर उनमें से जो पानी निकलता हैं , उसमें इस रोग के विषाणु भरे होते हैं । छालों के स्थान पर लाल- लाल घाव बन जाते हैं रोगी पशु की हालत दिन- प्रतिदिन बिगड़ती जाती हैं । क्योंकि वह ठीक प्रकार से खा- पी नहीं पाता हैं । दूधारू पशु का दूध घट जाता हैं और रोग बढ़ने पर पशु के नथुनों में भी छालें पड़ जाते हैं ।
विशेष — वैसे तो यह रोग वर्षभर चलता रहता हैं पर मार्च , अप्रैल ,अक्तुबर,दिसम्बर में विशेष कर हो जाता हैं । इस रोग में हमारे देश में पशु कम मरते है , वैसे तो अपनी शुद्ध देशी गाय में यह रोग होता नहीं हैं यह नश्ल बदलकर जो दौगली गाय है या उनमें जर्सी आदि का असर है तो यह रोग हो जाता हैं । लेकिन जो रोगी हो जाता है तो उसकी दूध उत्पादन क्षमता घट जाती हैं व सन्तानोत्पत्ति के लिए अयोग्य हो जाता हैं । भैंस के १ साल से छोटे बच्चों को यह रोग कम होता हैं और डेढ़ साल से तीन साल के पशुओं को यह रोग बहुत जल्दी लगता हैं तथा इस आयु में यह रोग बार- बार हो जाता हैं तथा बजे पशुओं या बूढे पशुओ में कम होता हैं तथा उन पर दूबारा रोग हमला नहीं करता है यह सभी प्रकार के पशु दूधारू या अन्य सभी को होता है लेकिन भैंसों का दूध तेज़ी से घटता है और गाय पर कम असर होता हैं । यह रोग ८ दिन से लेकर २८ दिन तक चलता रहता हैं जबकि यह रोग कमज़ोर पशुओं में कम होता हैं अच्छे मज़बूत पशुओं में ज़्यादा होता हैं ।
रोग के बचाव –
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१ – रोगी पशु को स्वस्थ पशुओं से तुरन्त अलग कर देना चाहिए ।
२ – रोगी पशु को बाँधने के स्थान चूना व फिनाइल डालकर रोगाणमुक्त कर देना चाहिए ।
३ – रोगी पशुओं को गन्दगी व सीलनयुक्त स्थान पर नहीं रखना चाहिए ।
४ – रोग फैलने के मौसम में सभी पशुओं के घावों व खुरों पर कपूरादि तेल लगाते रहना चाहिए ।
५ – रोगी पशु की टहल करने वाले व्यक्ति को दूसरे पशुओं के पास नहीं जाना चाहिए ।
६ – टहल करने वाले को अपने कपड़े ऊबाले पानी में धोकर रोगाणु मुक्त होना चाहिए ।
७ – इस रोग के टीके लगाने चाहिए ।
८ – पशुओं को पैरडुब्बी द्वारा बचा जा सकता है और बीच- बीच में कराते रहना चाहिए ।
९ – रोगी पशु का झूठा पानी- खाना अन्य पशु को नहीं देना चाहिए ।
# – खूरपका रोग मे पशुपालकों को यह ध्यान रखना चाहिए । चूँकि यह रोग हवा के माध्यम से भी फैलता हैं , जिधर से हवा चल रही हो उधरबिमार पशुओं को न बाँधे नहीं तो स्वस्थ पशु बिमार हो जायेंगे स्वस्थ पंशु को बिमार पशु की छुई हूई हवा न लगे । पशु उन्हें जौं या चने का सत्तु पिलाना चाहिए । अलसी की लई खिलाने से पशु की शक्ति कम नहीं होती हैं । चावल का माण्ड देने से भी आराम मिलता हैं । लाल दवा मिला पानी पिलाना भी गुणकारी हैं ।
# – खूरपका में बुखार की तीन अवस्थाएँ होती है तो उसका इलाज की भी तीन अवस्थाओं में होना चाहिए , बुखार के साथ- साथ इस रोग की प्रथम अवस्था चालू हो जाती हैं जिसकी दवा इस प्रकार हैं –
१ -औषंधि – कालीमिर्च पावडर २ तौला , गाय का घी २५० ग्राम ,गुनगुना करके दोनो को आपस में मिलाकर पशु को सुबह- सायं दिन में दो बार ३-४ दिन तक देने से लाभ होता हैं ।
२ – औषधि – पीपल के पेड़ के ऊपर जो नीम का का पेड़ उगा हो उसकी पत्तियाँ २५० ग्राम , पानी में पीसकर उसमें गाय का घी २५० ग्राम गुनगुना करके मिलाकर पशु को पिलाने से लाभ होता हैं ।
३ – औषधि – पुराना गुड १ किलो , सौँफ २५० ग्राम , गरमपानी २ लीटर मिलाकर पिलाने से लाभँ होता हैं ।
४ – औषधि – घुँघुची लाल ( गुञ्जाफल )की २५० पत्तियाँ पानी में पीसकर देने से बुखार उतर जाता हैं ।
५ – औषधि – चावल का माण्ड २ किलो , पुराना गुड १ किलो मिलाकर पिलाने से बु खार उतर जाता हैं ।
६ – सफ़ेद तिल को पानी में पीसकर पिलाने से पशु का बुखार उतर जाता हैं ।
७ – चिरायता पावडर ३ तौला , साँभरनमक पावडर ३ तौला , कलमीशोरा १५ माशा और डेढ़ छटांक गुड़ मिलाकर पानी मे मिलाकर पिलाने से लाभ होता हैं ।
८ – पैरों के घावों पर ५ भाग कोलतार और १ भाग नीला थोथा मिलाकर तैयार की गई मलहम लगाई जाती हैं , जोकि किटाणुनाशक , विषमारक तथा घावपूरक होती हैं ।
९ – बोरिकएसिड पावडर गरम पानी में मिलाकर उससे पशु का मुँह , थन तथा खुरों को धोवें और उसी से सेकें । गि्लसरीन में थोड़ा-सा पावडर मिलाकर मुँह के छालों में लगाने से गुणकारी होता हैं ।
खूरपका की द्वितीय अवस्था –
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# – बुखार उतर जाने के बाद घाव धोने की आवश्यकता पड़ती हैं । पशु उस अवस्था में चलने- फिरने में असमर्थ हो जाता हैं । घावों को धोने के लिए इन दवाओं का प्रयोग करना चाहिए —
१ – फिटकरी को गरम पानी में डालकर पशु का मुँह व खुर धोने चाहिए ।
२ – बबूलछाल , ढाकछाल , जामुनछाल, आँवलाछाल ,और नीम की छाल सममात्रा में लेकर काढ़ा बनायें ।इन दवाओं के काढें से पशु के पैरों को धुलवायें काढ़ा बनाने कि विधी इस प्रकार हैं – सभी दवाओं को पानी में डालें जितने पानी में डूब जायें उससे डबल पानी में पकायें । जब तीन हिस्सा पानी जलकर एक हिस्सा पानी रह जाये तब धुलाई का कार्य किया जायें और मुँह व पैर में ज़ख़्म यदि अधिक हो गये हो तो उन्हें काढ़े से भलीप्रकार से धोना चाहिए । शहद या शीरा हो तो अच्छा है नहीं तो तिल या नारियल तेल या गाय का घी २५० ग्राम में फिटकरी पावडर , कत्था , सुहागाफूला, खाने का सोडा आधा- आधा टीस्पुन ( चम्मच ) मिलाकर दवा का लेप करना चाहिए । दवा लगाकर कपड़े की पट्टी बाँधकर उसपर मिट्टी लगा देनी चाहिए जिससे उसमें गोबर न घुसे और पशु मुँह से खोल न दें ।
# – घाव पर मरहम भी लगा सकते है , मरहम इस प्रकार बनायें – –
१ – औषधि – अलसी का तेल २५० ग्राम , कपूर १ छटांक , डेढ़ तौला तारपीन का तेल , तीनों को आपस में मिलाकर घाव पर लगाने से आराम आता हैं ।
२ – औषधि – तुतिया १ भाग , अलकतरा १० भाग , दोनों को मिलाकर घाव पर लगाकर पट्टी बाँधने से आराम आता हैं ।
३ – औषधि – नीम की पत्तियों को पानी में पीसकर घाव पर लगाने से आराम आता है ।
४ – औषधि – बर्रे का डढुआ ( बर्रे के दानों को मिट्टी के बर्तन में बन्द कर आग में पकाकर तेल निकाले ) इसके बाद पशु के घाव पर लगायें तो आराम आता हैं ।
५ – आयुर्वेद में डुब्बी प्रणाली ( Foot Bath ) सर्वोत्तम मानी गई हैं । इसकी विधी इस प्रकार हैं – –
गौशाला या डेयरी या पशुओ के बँधने के स्थान पर या आसपास में एक ऐसा स्थान बनाना चाहिए जो १२ फूट लम्बा व १ फ़िट गहरा रपटा बनाना चाहिए यानि गड्ढा लम्बाई की दिशा में जिधर से शुरूआत होती है वहाँ हर फ़ुट पर डेढ़ – डेढ़ इंच गहरा करते चले और बीच तक गहरा करें और अन्तिम तक बीच से डेढ़- डेढ़ इन्च गहराई कम करते चले आये और साईड में दिवार दो-दो फ़िट उँचा कर दें और गड्ढे के अन्दर सिमेन्ट कर देना चाहिए जब-जब पशुओं में खूरपका रोग आये इस गड्ढे में पानी भर कर उसमें फिनाइल या लाल दवा पौटेशियम परमैग्नेट डालकर पशुओं को इस पानी में से निकालना चाहिए इससे रोग की रोकथाम होगी ।
६ – औषधि – बबूल छाल ( कीकर छाल ) २५० ग्राम , जवासे का हरा पौधा १ छटांक , फिटकरी ११ छटांक , हराकसीस आधा छटांक , कत्था आधा छटांक , सबको लोहे के बर्तन मे ४ लीटर पानी में उबालें । जब तीन चौथाई पानी रह जाये तो कपड़े से छानकर थोड़ा – सा कपड़े धोने का सोडा मिला दें । यदि उक्त दवाओं में एक – आध दवा न मिले तो कोई हर्ज नहीं हैं परन्तु कीकर छाल ज़रूरी हैं । काढ़े से मुँह व खुरों को प्रतिदिन पिचकारी या प्रेशर से धोए तो अच्छा रहेगा ।
कीटाणु नाशक औषधियाँ —
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पशु के खुरों में कोई लेप या मरहम आदि लगाने से पहले यह देख लेना चाहिए कि घाव व खुरों में कीड़े तो नहीं पड़ गये हैं यदि ऐसा है तो कीटाणु नाशक दवा लगाकर दवा लगाकर उनके मर जाने पर दवा- मरहम लगाकर पट्टी बाँधनी चाहिए –
१ – औषधि – फिनाइल का फोहा बाँधे या फिनायल से पानी में मिलाकर उससे पैर धोये ।
२ – औषधि -मैथिलेटिड स्प्रिट भी उत्तम कीटाणु नाशक है साथ ही घावों को भी भरती हैं । दवा को खुरों के बीच तक पहुचानी चाहिए ।
३ – औषधि – मुँह तथा थन आदि में उपर्युक्त दवा का प्रयोग नहीं किया जाता हैं इसके स्थान पर लाल दवा के घोल से धोना चाहिए ।
४ – औषधि – जामुन तथा अनार की छाल १-१ पाँव तथा एक पाँव कीकर के पत्ते या छाल ४ लीटर पानी में डालकर पकायें । जब एक चौथाई पानी शेष रहने पर छानकर ठन्डा होने पर उससे पशु के मुँह , थन एवं खुरों को धोयें । यह दवा भी उत्तम कीटाणु नाशक हैं ।
५ – औषधि – यदि खुरों के पास पैरों में माँस बढ़ जायें तो उस पर तुतिया रगड़ना सर्वोत्तम एवं लाभकारी हैं ।
६ – औषधि – यदि सुम गिर जाय तो तुतिया १ भाग , फिटकरी २ भाग और कोयला ४ भाग – सभी को बारीक पावडर करके कपडछान कर मिलाकर घाव पर बुरक देना चाहिए । और पट्टी बाँध देनी चाहिए । यह । अत्यन्त लाभकारी उपाय हैं ।
# – खूरपका ( ज्वरनाशक ) औषधियाँ –
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खूरपका बुखार को झाड़ने का मन्त्र व विधी इस प्रकार हैं —
गंग जमुन दो बहे सरस्वती , गऊ चरावै गोरखयती ।।
गोरखयती की बाचा फुरी , नामहुँ फूटे न आव खुरी ।।
जारा मारा माँद विसहरी, बडुका वौडी डिमरारूज जारी ।।
भस्म खुरखुट दोहाई नोना चमारी की आन ।।
मेरी भक्ति – गुरू की शक्ति , फुरो मन्त्र ईश्वरवरो वाचा ।।
नीम की हरी पत्तियों वाली टहनी से ५ बार मन्त्र पढ़कर पशु को झाड़ना चाहिए पशु का बुखार ठीक होता हैं ।
# – इस खूरपका रोग में पशु को तेज़ बुखार हो जाता हैं और बुखार के कारण उसके घाव भी जल्दी नहीं भरते हैं । और नहीं पशु कुछ खा – पी सकता हैं इसलिए सबसे पहले बुखार उतारने की कोशिश करनी चाहिए । कुछ ज्वरनाशक योग इस प्रकार है —
१ – औषधि – कपूर ९ माशा , कलमीशोरा १ तौला , देशीशराब ढाई तौला और पानी सवा लीटर लें । पहले कपूर को शराब में अच्छी तरह मिला लें और शीरे को पानी में घोल लें । फिर इन दोनों घोलों को परस्पर मिलाकर थोड़ी – थोड़ी मात्रा में पशु को पिलायें ।
२ – औषधि – बबूल व सिरस की छाल ५-५ तौला , हराकसीस ३ माशा , नीम के फूल और चिरायता ५-५ तौला , पीले – फूलों वाली कटेरी ५ तौला और पानी ५ लीटर लें । हराकसीस उसमें घोल दें । इनका काढ़ा थोड़ा- थोड़ा करके गुनगुना – गुनगुना ही पशु को पिलायें । यह काढ़ा बुखार की तेज़ी को कम करता हैं । इस काढ़े से पशु के थन व मुँह को धोना भी लाभकारी होता हैं ।
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