विचार == विवेक
आजकल आपने देखा
होगा कि मंदिरों और मस्जिदों में बहुत चढ़ावा चढ़ाया जा रहा है । दर्शनों के लिए
स्त्री पुरुषों की इतनी भीड़ दिखाई देती है कि लगता है सारा संसार भगवान का भक्त हो
गया है ।
ईसाई समुदाय के
चर्च में ईसाइयों की भीड़, मंदिरों में
हिंदुओं की भीड़, तथा मस्जिदों में
मुसलमानों की भीड़ दिखाई दे रही है ।
सभी स्त्रियां और
सभी पुरुष अपने अपने धर्म और भगवान के बड़े भक्त दिखाई दे रहे हैं । ऐसा कोई न तो
पुरुष दिखाई देता है जो किसी न किसी धर्म से और अपने अपने देवता से न जुड़ा हुआ हो और न ही कोई स्त्री ऐसी दिखाई देती है जो किसी
न किसी धर्म और देवता से न जुड़ी हो ।
सभी लोग अपने
अपने धर्माचार्यों से भी जुड़े हुए हैं ।सभी लोग अपने अपने तीर्थों में जाते हैं ।
इतना सबकुछ होते हुए भी किसी भी स्त्री और पुरुष से मिलो ,वही दुख और धोखे की बात बताता है
सभी क्रूर, धोखेबाज, और स्वार्थी ही दिखाई देते हैं । इन धार्मिकों का आचरण और
जीवनशैली ऐसी है कि जैसे घोर कामी और घोर लोभी की होती है ।
आज की स्त्री और
पुरुष किसी भी धर्म के हों, वास्तव में वे न तो धार्मिक हैं और न ही भक्त
हैं । तो फिर ये क्या हैं ?
इसका उत्तर प्रह्लाद जी ने नृसिंह भगवान से कहा कि हमारे
पिता जी ने तपस्या भी की, अपने भगवान का
दर्शन भी किया, उनसे बात भी की, और उनसे वरदान भी
प्राप्त किया ।
लेकिन उनका न तो मन शुद्ध हुआ और न ही आचरण में परिवर्तन हुआ ।
इतनी क्रूरता तथा
दूसरों को दुखी करने की प्रवृत्ति और निर्बलों को मारकर सम्पत्ति इकट्ठे करने की
वृत्ति और आचरण देखकर लगता है कि ऐसे लोग को न तो धार्मिक होते हैं और न ही भगवान
के भक्त होते हैं । ये दुष्ट मन के
ही होते हैं ।
भागवत के 7 वें स्कन्ध के 10 वें अध्याय के चौथे श्लोक में प्रह्लाद जी ने भगवान से कहा
है ।
" नान्यथा तेsखिलगुरो घटेत करुणात्मनः ।
यस्ते आशिश
आशास्ते न स भृत्यः स वै वणिक् ।।
प्रह्लाद जी ने
कहा कि हे भगवन् ! हे अखिलगुरो ! आप तो करुणा के सागर हैं ।आप अपने भक्त को माया
में नहीं फंसाना चाहते हैं । जो भी आपकी सेवा पूजा अर्चना करके आप से अपनी कामना
पूर्ति करवाना चाहते हैं ,वे आपके भक्त
नहीं हैं ।वे तो वणिक् (बनिया ,व्यापारी ) हैं ।
जैसे बनिया
व्यापारी मीठी मीठी बातें करके अपने ग्राहक को प्रसन्न करके अपने सामान को बेचना
चाहता है ।न तो वणिक को ग्राहक से प्रेम होता है और न ही वणिक को ग्राहक के दुख से
मतलब होता है ।
उधार न चुकाने पर
यही वणिक उसी ग्राहक का अपमान भी करता है और उसका घर द्वार, गहने आभूषण सब खा जाता है ।
अर्थात जैसे
व्यापारी के मन में कुछ और होता है और वर्तमान के आचरण में कुछ और ही होता है ।उसी
प्रकार जिनके मन में कामनाएं होतीं हैं ।उनकी पूर्ति के लिए फूल, माला, दूर्वा ,नारियल ,रुपया आदि भेंट करके मंत्र जप आदि करते हैं ,वह सब बनियागिरी है।
मन में कुछ और
आचरण में कुछ और होता है। उन्हें आप से
प्रेम नहीं होता है ,और न ही उनके
हृदय में भक्ति होती है । ऐसे लोग भगवान से थोड़ी पूजा अर्चना करके ,थोड़ा कुछ रुपया चढ़ाकर के उससे हजारों गुना
भगवान से लेना चाहते हैं।
आजकल इसलिए सभी
हिरण्यकशिपु की तरह ही आचरण के भक्त हैं। तपस्या, व्रत, पूजा आदि देखकर
तो ऐसा ही लगता है कि यह आस्तिक, धार्मिक सज्जन
आदमी है। लेकिन जैसे ही मौका मिलता है, वह अपना स्वभाव दिखा ही देते हैं।
धोखा, व्यभिचार, अत्याचार ही इनके मन में है। लेकिन अवसर नहीं मिलता है ।इस
दृष्टि से मंदिरों में करोड़ों का मुकुट हार चढ़ानेवाले भक्त नहीं हैं। वणिक हैं, व्यापारी हैं।
एक करोड़ का मुकुट
चढ़ाकर भगवान से 100करोड़ चाहते हैं।
पंडित, पुजारी, मंडलेश्वर, सभी तो ऐसे ही वणिक हैं। परोपकार भी करते हैं तो अपना ही
यश चाहते हैं।
कोई भगवान का
विरक्त भक्त आता है तो मंडलेश्वर दर्शन नहीं देते हैं। लेकिन कोई धनवान आता है तो
उसकी सेवा करने में ही लग जाते हैं क्योंकि इन्हें भगवान की भक्ति नहीं चाहिए।
भगवान की शक्ति चाहिए।
इसलिए महापुरुष
तथा शास्त्र कहते हैं कि न मांगने से भगवान प्रसन्न हो जाते हैं। जब भगवान प्रसन्न
हो जाते हैं तो फिर किसी से कुछ मांगने की जरूरत नहीं रहती है।
इन व्यापारी
धार्मिकों से बचते रहे, तो एक न एकदिन
संत भगवान अवश्य ही मिल जाएंगे। फिर क्या है, वो मिले तो वे मिल ही जाएंगे।
आचार्य ब्रजपाल शुक्ल,
वृन्दाबन धाम
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