*प्रश्न==* सन्मार्ग और सत्कर्म के पथ पर इतने अवरोध, विरोध और व्यवधान उपस्थित क्यों होते हैं ?उसका समाधान क्या है ? डर और अनिश्चितता जीवन से कैसे समाप्त हो ?
सुरेन्द्र शास्त्री ,आर . बी . ऐस. कालेज आगरा उ. प्र. ।
*उत्तर ==* कभी कभी स्वयं भी विचार करना चाहिए । जैसे अपनी आजीविका के लिए तथा परिवार के लिए योजना बनाते हैं, उसी प्रकार सन्मार्ग और सत्कर्म के लिए भी योजना बनानी चाहिए ।
परिवार पालन के लिए और आत्मप्रतिष्ठा सम्मान के लिए आप अपने ही माता पिता, भाई बन्धु, मित्र, समाज आदि की बात नहीं मानते हैं,और अपने मन की करके ही सांस लेते हैं ।
" लोग क्या कहेंगे" इसकी भी चिंता नहीं करते हैं, कितना भी संघर्ष क्यों न करना पड़े, लेकिन उस काम को करते ही हैं ।
क्यों कि इनके मोहपाश में आपका मन ऐसा बंधा हुआ है कि "पति, पत्नी और संतान के अतिरिक्त और किसी के लिए आप कुछ अधिक करने को तैयार नहीं हैं ।
जितना आप अपनी पत्नी और बच्चों के लिए करने को तैयार हैं,इतना अपने माता पिता को भी करने को तैयार नहीं हैं ।
जब कि माता पिता ने आपकी जितनी सुरक्षा की है,ध्यान दिया है,प्रेम किया है,उतना पत्नी ने न कभी किया है और न ही करेगी ।
इसी प्रकार एक पुत्री के लिए उसके माता पिता ने जो किया है,उसका पति भी कभी नहीं करेगा, लेकिन आप कुछ वर्षों तक भी माता पिता की सेवा के लिए तैयार नहीं हैं । आपका मन जैसा है,वैसा ही तो सबका है ।
दूसरों के लिए जैसे आप व्यवधान हैं, आप दूसरों का विरोध करते हैं,तो दूसरे भी आपका विरोध करते हैं । आप दूसरों के लिए अवरोध हैं तो दूसरे आपके लिए अवरोध हैं ।
सन्मार्ग और सत्कर्म तो आपके मन से विरुद्ध मार्ग है । "भागवत के 5 वें स्कन्ध के 5 वें अध्याय का 5 वां और छठवां श्लोक देखिए " ।
*पराभवस्तावदबोधजातो यावन्न जिज्ञासत आत्मतत्त्वम् ।यावत्क्रियास्तावदिदं मनो वै कर्मात्मकं येन शरीरबन्धः ।।5।।*
ऋषभदेव जी ने अपने पुत्रों से कहा कि जब तक इन स्त्री पुरुष के शरीरधारी मनुष्य को आत्मा को जानने की इच्छा उत्पन्न नहीं होगी ,तब तक उनको अज्ञान के कारण संसार ही सत्य लगेगा,और संसार के कर्म ही मुख्य लगेंगे ।शरीर के सुख ही सुख लगेंगे ।
शरीर के लिए और सम्बन्धियों के लिए ही कर्म करता रहेगा ।न उसे सन्मार्ग का सही ज्ञान होगा और न ही सत्कर्म का ।
जब तक सांसारिक क्रिया करता रहेगा,तब तक मन कर्म में ही आसक्त रहेगा, और जबतक मन अज्ञान के कर्म करता रहेगा,तब तक उसकी प्रवृत्ति त्याग की नहीं होगी ।
जब तक त्याग नहीं करेगा,तब तक न तो स्वयं सन्मार्ग और सत्कर्म की ओर पूर्ण रूप से जाएगा और न ही किसी को जाने देगा,और न ही जन्म मरण से मुक्ति ही होगी । अब आगे का श्लोक देखिए ,
*एवं मनः कर्मवशं प्रयुंक्ते अविद्ययात्मन्युपधीयमाने ।
प्रीतिर्न यावन् मयि वासुदेवे न मुच्यते देहयोगेन तावत् ।।6।।*
हे पुत्रो ! इसप्रकार से आत्मतत्त्व की तथा परमात्मा की जिज्ञासा उत्पन्न न होने के कारण सभी अज्ञानी स्त्री पुरुषों का मन सांसारिक कर्मों के वशीभूत होकर विविध प्रकार के दुखदायक कर्मों को करते रहते हैं ।
न स्वयं करते हैं और न ही दूसरों को करने देते हैं । जब तक भगवान वासुदेव में प्रेम नहीं उत्पन्न होता है,तब तक बार बार जन्म होगा,और मरण भी होगा ।
अर्थात मात्र पति,पत्नी,बच्चे के लिए किए जानेवाले कर्मों को ही जब तक जीवन की पूर्ण सार्थकता मानते रहेंगे,तब तक आपके जैसे ही मनुष्य सत्कर्म और सन्मार्ग के अवरोध,विरोध बनते रहेंगे ।
किसी ज्ञानविज्ञान सम्पन्न गुरु की शरण ग्रहण कीजिए,और उनकी सेवा करके उनकी आज्ञा का पालन करिए । आपका अनिश्चित जीवन निश्चित, निश्चिंत और आनन्दपूर्ण हो जाएगा ।
आपने संसार के सुख के लिए भगवान और महापुरुषों का त्याग किया है , अब कुछ दिन के लिए भगवान और महापुरुषों के लिए संसार के सुखों का त्याग करके देख लीजिए ।
घर में रहते हुए समय से ब्रह्ममुहूर्त में जागना, समय से सोना, सात्विक भोजन करना, किसी की निंदा न करना, सबका आदर करना, समय समय पर महापुरुषों की सेवा करना, कम बोलना, और सत्य सार्थक बोलना,इतने ही नियमों को एकवर्ष पालन करके देख लीजिए, बस इतने से ही आपको सभी लोग सत्मार्ग और सत्कर्म में सहयोग करने लगेंगे ।
न कोई विरोध करेगा और न ही कोई अवरोध उत्पन्न करेगा ।
राधे राधे ।
*-आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, श्रीधाम वृन्दाबन*
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