प्रश्न,,, महादेवी सती ने योगाग्नि से शरीर त्याग दिया था, योगाग्नि क्या है?
दक्ष के यहाँ शरीर त्याग का इस कथा का आध्यात्मिक अर्थ क्या है ?
रत्नेश कुमार पटेल, उप निरीक्षक पुलिस, जबलपुर । म,प्र , ।
उत्तर == भक्तिमान् भव !
संसार में शरीरों का निर्माण आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी से हुआ है । इन पाचों तत्त्वों को एक दूसरे का कारण कहते हैं ।
जैसे -- मिट्टी से घड़ा बनता है तो मिट्टी अर्थात पृथिवी को घड़े का कारण कहेंगे,और घड़े को कार्य कहेंगे । कारण के गुण ही कार्य में होते हैं । पृथिवी का गुण घड़े में,कपास का गुण वस्त्र में आता है ।
अब देखिए कि योग से उत्पन्न की गई अग्नि क्या है ?
वायु से अग्नि उत्पन्न होती है ।वायु कारण है और अग्नि कार्य है ।वायु के गुण अग्नि में होते हैं । अर्थात शरीर में एक ही वायु पांच प्रकार से रहता है । (1) प्राण (2)अपान (3)समान (4) व्यान (5) उदान ।
वायु से अग्नि की उत्पत्ति हुई है ।इसलिए शरीर में स्थित इन पाचों प्राणों से योगविधि से अग्नि को प्रकट किया जाता है ।
ये पांच प्राण ही अग्नि को उत्पन्न करने में समर्थ हैं ।लेकिन अग्नि को स्थिर करने के लिए पृथिवी का ईंधन चाहिए ।तो शरीर में स्थित त्वचा, मांस आदि अग्नि को स्थिर करता है ।
जैसे पत्थरों के टकराने से अग्नि तो निकलता है लेकिन स्थिर तो सूखे घास और लकड़ी आदि में ही होता है । अब देखिए कि सती जी ने किस विधि से योग द्वारा अग्नि को प्रकट किया है ?
भागवत के चतुर्थ स्कंध के चौथे अध्याय के 25 वें,26 वें श्लोक में मैत्रेय जी ने विदुर जी को सती जी के योगाग्नि को प्रकट करने की विधि को बताते हुए कहा कि
"कृत्वा समानावनिलौ जितासना सोदानमुत्थाप्य च नाभिचक्रतः ।शनैर्हृदिस्थाप्य धियोरसि स्थितं कण्ठाद् भ्रुवोर्मध्यमनिन्दितानयत् ।। 25 ।।
सती जी ने पिता दक्ष के समक्ष तथा सभी यज्ञकर्ताओं भृगु आदि ऋषियों के देखते देखते पद्मासन को लगाया,और कण्ठ में रहनेवाले प्राणवायु को तथा गुदा में रहनेवाले अपान वायु को समानवायु में एक करके, प्राण, अपान और समानवायु इन तीनों को एकसाथ नाभि स्थान में स्थित मणिपूरक चक्र में स्थित कर दिया ।
पुनः प्राण, अपान,समान. इन तीनों को नाभि स्थान से ऊपर की ओर खींचते हुए हृदय में स्थित अनाहत चक्र में स्थित किया । पुनः तीनों वायु को हृदय से खींचकर ग्रीवा के नीचे तथा हृदय से ऊपर उर स्थान में स्थापित किया ।
पुनः प्राण,अपान,समान इन सम्मिलित तीनों वायु को कण्ठ से ऊपर की ओर खींच कर दोनों भौहों के मध्य में स्थित आज्ञाचक्र में स्थित कर दिया ।अब देखिए कि फिर क्या किया ?
" एवं स्वदेहं महतां महीयसा मुहुः समारोपितमङ्कमादरात् ।
जिहासती दक्षरुषा मनस्विनी दधार गात्रेष्वनिलाग्निधारणाम् ।।26।।
इस प्रकार भगवान शिवजी को ध्यान के बल से अपनी गोद में स्थित करके मन को शांत किया । फिर अपने पिता दक्ष के प्रति घोर क्रोध की अग्नि को मन में धारण करके भौंहों के मध्य आज्ञाचक्र में स्थित प्राण, अपान, और समान वायु का मंथन करते हुए अग्नि तत्त्व की धारणा की ।
इसके आगे के 27 वें श्लोक में मैत्रेय जी ने कहा कि
" सद्यः प्रजज्वाल समाधिजाग्निना " सबके देखते देखते ही सती जी के शरीर में "सद्यः " अर्थात तत्काल सम्पूर्ण शरीर में समाधि से उत्पन्न अग्नि जलने लगा । इसको कहते हैं " योगाग्नि " ।
इसका आध्यात्मिक अर्थ यह है कि " शिव तथा शिवा साक्षात् परमात्मशक्ति ही हैं । इनको योगादि के शिक्षा के लिए किसी मनुष्य के समान गुरू की आवश्यकता नहीं है । जब जहां चाहें प्रकट हो जाएं ,या अन्तर्धान हो जाएं ।
ये सब प्रकृति के नियामक,संहारक,पालक,जन्मजात सर्वविद्या हैं । ये किसी के नियन्त्रण में नहीं हैं । इनके नियन्त्रण में अनन्तब्रह्माण्डों की प्रकृति है ।
ऐसे आचरण करके ही ऋषियों,मनुष्यों,देवों को शिक्षित करते रहते हैं ।इसलिए इसे लीलाविलास कहते हैं ।न इनका जन्म हुआ है और न ही मृत्यु होती है ।तत्त्व तत्त्व ही रहता है । कार्य का नाश होता है ,कारण सदा ही अपने स्वरूप में स्थित है ।
राधे राधे ।
-आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, श्री धाम वृन्दाबन
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