वैदिक काल में भी गायों की रक्षा करने वाली विशेष सेना होती थी। जैसे आज राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा के लिए विशेष सीमा सुरक्षा बल हैं उसी प्रकार वैदिक काल में गायों की रक्षार्थ ‘गोषु योद्धा’ होते थे। स्पष्ट है कि उन कालों में भी गाय की रक्षा का प्रश्न था। उसकी सहज सुरक्षा नहीं थी।
हम सरकारों को चुनते हैं अपनी सुरक्षा के लिए, अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए, अपनी आर्थिक व्यवस्थाओं को संतुलित रखने के लिए इत्यादि।
जब सरकारें ही इन पर से ध्यान हटा दे तो फिर सरकार क्यों ? किसके लिए ? पिछले 68 सालों में यही होते आया इस कारण भारत में सरकार के ऊपर गौरक्षक दल बना।
यह गौरक्षक दल भी ‘गोषु योद्धा’ का ही कलयुगी रूप है। इस दल के पुरुषार्थ ने ही भारत में गाय के अस्तित्व को बचाया है।
जब गाय का विज्ञान सामने नहीं था तब इन्होंने ही कसाईयों के बल को झेलकर गाय को बचाया, भले ही वह धर्म के नाम पर ही क्यों न हो।
कभी भी किसी गौरक्षक दल के सदस्य को सरकार ने एक फूटी कौड़ी भी नहीं दिया। उन्होंने अपने सामर्थ से अपना खर्च चलाया और गाय की रक्षा के लिए खर्च किया। इसमें भावना केवल धर्म की रही। जो भी हो, गाय तो बची है।
यह बात अलग है कि उनमें से कुछ लोगों ने कमाने – खाने का धंधा बना रखा है। गाय के नाम पर बटोरना और खा-पी कर बराबर कर देना। लेकिन प्रश्न उठता है कि ऐसे कितने लोग होंगे ? शायद कुछेक ; एक या दो प्रतिशत। इसके लिए प्रधानमंत्री को गौरक्षक दल के पुरुषार्थ पर सवाल क्यों खड़ा करना पड़ा ?
कुछ दिनों पूर्व एक समारोह के दौरान पीएम मोदी ने कहा कि, अधिकतर गायें कत्ल से नहीं बल्कि पालीथिन खाने से मरती हैं।
यही प्रधानमंत्री मोदी हैं जिन्होंने कई बार कत्लखानों को जिम्मेदार ठहराया है। देश में कत्लखानों को कलंक बताते हुए अफ़सोस भी प्रकट किया है। यही नहीं बल्कि उन्होंने सरकारों द्वारा कत्लखानों को दी जाने वाली सब्सिडी का भी विरोध किया था।
आज उन्होंने कहा ‘‘कुछ लोग गौरक्षा के नाम पर अपनी दुकानें खोल बैठे हैं।’’ ये वैसे लोग हैं जो अपने काले कारनामे छिपाने के लिए ऐसा करते हैं। आगे कहा की, मुझे बहुत गुस्सा आता है कुछ लोग जो असामाजिक कामों में लिप्त रहते हैं, वे गौरक्षक का चोला पहन लेते हैं।
उन्होंने सभी प्रदेश के मुख्यमंत्रियों से कहा है कि असामाजिक कामों में लिप्त रहने वाले ऐसे लोग जो गौरक्षक का चोला पहन लेते हैं राज्य सरकारें ऐसे लोगों का डॉजियर तैयार करें।
उन्होंने कहा कि, अधिकतर गायें कत्ल नहीं की जातीं, बल्कि पॉलीथिन खाने से मरती हैं, अगर ऐसे समाजसेवक प्लास्टिक फेंकना बंद करा दें, तो गायों की बड़ी रक्षा होगी।
अर्थात् प्रतिदिन कत्लखानों में काटी जा रही लाखों गायों का मामला बस यू ही है और केवल पॉलीथिन ही विषय है। माना की यह भी एक विषय है। लेकिन कत्लखानों में कटती गायों को नाकार नहीं सकते।
आज गऊ हत्या पर थोड़ी पाबंदी है तो वह गऊरक्षकों के भय के कारण। सरकार से कोई भय नहीं खाता। क्योंकि सरकार के ज्यादातर नौकरशाह तो बिके हैं। पुलिस तो गऊहत्यारों के पक्ष की है। क्योंकि उनके पास पैसे हैं।
1952 में भी लगभग एक ऐसा ही बयान पंडित जवाहरलाल नेहरु प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए संसद के शीतकाल में दिया था। भारत के सभी मुख्यमंत्रियों से कहा था गऊहत्या का विषय महत्वपूर्ण नहीं है, किसी भी राज्य में गऊहत्या बंद नहीं होनी चाहिए, गऊहत्या बंदी के बिल को कूड़े में फेक देनी चाहिए।
इसी के बाद भारत के कसाईयों का मन बढ़ा और वे न्यायालय में चले गए। जहां उन्होंने 1954 में मुकदमा जीता और गउरक्षा का बिल अधर में अटक गया। और आज तक लटका है।
इसके बाद तो इतनी तेजी के साथ गाय काटी गई कि आज वह विनाश के कगार पर खड़ी है। 34 करोड़ से घटकर 3 करोड़ रह गई है। कुछ सालों में जड़-मूल से समाप्त हो सकती है।
अंगरेजों के पूर्व लगभग 360 नस्लें थी। आज मुश्किल से 72 प्रजातियां बची हैं। जिनमें से 40 की पहचान और अध्ययन की जा चुकी है। शेष के बारे में ज्यादातर लोगों को पता भी नहीं है।
गाय क्यों बचनी चाहिए ? इस प्रश्न का एक ही उत्तर है। ‘‘यतो गावस्ततो वयम्’’। हम मनुष्यों का अस्तित्व करोड़ो वर्षों से धरती पर बचा है क्योंकि धरती पर गाय हैं।
इसलिए प्रधानमंत्री जी जागिये ! और तब तक प्रयास करते रहिये, जब तक भारत में संपूर्ण गऊहत्या बंदी न हो जाए। इसी में आपकी रक्षा है और आपका अस्तित्व भी।
– जय वंदे गऊ मारतरम् ।
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