Saturday, 31 December 2016

swami akhandananda sarswati

संसार से छूटने का एक मात्र उपाय 



राजा प्राचीनबर्हि ने नारदजी से पूछा की महाराज, मनुष्य कर्म तो एक शरीर से करे और उसका फल उसे दुसरे शरीर में भोगना पड़े, जिसने कर्म किया उसको तो फल मिले नही जिसने कर्म नही किया उसको फल मिले तो यह कैसे न्यायसंगत हो सकता है?


इस पर नारदजी ने बताया की कर्म स्थूल शरीर से नही होता, लिंग   शरीर ही उसका कर्ता होता है. जबतक अध्यास, भ्रम नही मिट जाता और अपनी अद्वितीयता का पूर्णता का बोध नहीं हो जाता तब तक मनुष्य बंधन में रहता है. इसलिए इससे उबरने का उपाय महात्माओ का संग है. 


महात्माओ के मध्य में बैठने पर देखोगे की उनके श्रीमुख से भगवचरित्र की अंर्तमयी  बहती  रहती है. पहले तो वे भगवान के अमृतमय चरित्र का रसास्वादन स्वयं करते है. उनको बोलकर भगवत्चरित्र प्रकट करने की आवश्यकता नहीं रहती. फिर भी भगवन का चरित्र ऐसा  मधुर है, ऐसा रसमय है की वह उनके भीतर समता नहीं है और उन मौनी महात्माओ को भी मुखर बना देता है. 


इसलिए अपने कानो को उस कथा की नदी में डुबो दो और उसको पीओ. जो लोग उस कथामृत का पान करने लगते है, उनकी प्यास बुझती नही है वे पीते जाते है. उनकी तृप्ति होती जाती है लेकिन उनकी प्यास भी बढ़ती जाती है.


जो लोग इस रस पान के आदि हो जाते है उनकी भूख-प्यास इसके आनंद में गायब हो जाती है, लुप्त हो जाती है. उनके भविष्य का कोई भय नहीं होता, भूत का कोई शोक नहीं होता और वर्तमान का  नहीं होता. 


इसलिए संसार की जो प्रडाली व् परम्परा चल रही है, जिसमे मैं मेरा करके यह जीव आबद्ध है, उससे छूटने का एक मात्र उपाय सत्संग है. 

(ब्रह्मलीन श्री स्वामी अखंडानंद सरस्वती जी महाराज के प्रवचनों से)

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