घटना १९४५ के आस पास की है
कशी के प्रख्यात वैद्य पंडित राजेश्वर्दत्त शास्त्री के यहा बिहार के एक संपन्न जमीदार अत्यंत क्षीण अवस्था में अपनी पत्नी को लेकर उपचार के लिए आये
उनकी पत्नी ३० वर्ष की आयु में ही सूखकर कटा हो गयी थी
पूरा शरीर झावर गया था और वे भयानक पीड़ा से बेचैन
जमीदार ने बताया की कई वर्षो से वे उपचार के लिए चारो ओर दौड़कर थक गए किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ
किसी को इनके रोग का थाह नहीं लगता
वैद्यजी ने उनकी नाडी देखि कुछ देर विचार किया और जमीदार को एकान्त में बताया की इन्हें केंसर हुआ है , किन्तु घबराने की कोई बात नहीं है
भगवान् का नाम लेकर धैर्य और परहेज से यदि दवा करेगे तो छेह माह में ठीक हो जायेगी
इनकी दावा और भोजन केवल काली (श्यामा) गाय का दूध और काली तुलसी की पत्ती होगा. अतः ये जितना खा पी सके वही दूध और पत्ती दीजिये
यदि स्वाद बदलने की इच्छा हो तो मूग की दाल का रस और जौ की रोटी दे सकते है
साथ में कोई भी दवा लेना गो दुग्ध और तुलसी का अपमान होगा और जिससे हानि भी हो सकती है
गाय और तुलसी दोनों हमारी माँताए है
और इसी के अनुसार उपचर किया धीरे धीरे समय बीतता गया
छेह माह बाद जमीदार अपनी पत्नी के साथ जब वाराणसी में वैधजी के यहाँ आये तो स्वस्थ , सुन्दर एवम प्रसन्न महिला को देखते ही वे पहचान गए
और स्वयं हर्षित होकर बोल पड़े - देखा न गो दुग्ध और तुलसी का चमत्कार
जमीदार ने बताया उन्होंने काली तुलसी का बड़ा बगीचा ही लगवा दिया था और चार पांच काली गाये रख ली थी. महीने भर सेवन करते करते उनकी पत्नी पर्याप्त स्वास्थ्य हो गयी
जमीदार ने श्रद्धा पूर्वक वैद्यजी को बहुत आग्रह पूर्वक कुछ देना चाहा और ग्रहण करने की प्रार्थना भी की किन्तु वे बोले -मैंने अपने औषधालय से आपको कोई दवा दी नही तो पैसे किस बात के लू. हा गो माता ने आप पर कृपा की है अतः यह धन किसी गोशाला को दान दे दीजिये
(कल्याण के गो सेवा अंक से साभार)