Thursday, 13 December 2018

अपने दुर्भाग्य को मनुष्य अकेले ही भोगता है


जब भी मनुष्य के ऊपर कुछ आपत्ति आती है , या अकस्मात् कोई दुख आ जाता है तो घबराहट और चिंता के कारण विवेकहीन हो जाता है। अपने सारे दुखों का कारण अपने आस पास के लोगों को ही मानता है ।

*भागवत के 10 वें स्कन्ध के 82 वें अध्याय* में वसुदेव जी तथा बहिन कुन्ती का इस दुख और आपत्ति के विषय में अद्भुत संवाद है ।

श्री शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को बताया कि एकबार ऐसा सूर्यग्रहण पड़ रहा था कि जैसे प्रलयकाल में सूर्यग्रहण पड़ता है । भगवान श्री कृष्ण ने सभी द्वारकावासियों से स्यमन्तपञ्चक क्षेत्र में चलने के लिए कहा । सभी तैयार हो कर चल पड़े ।

यह वह क्षेत्र है ,जहां कि परशुराम जी ने  हैहयवंश के अनेक क्षत्रिय राजाओं को मारकर उनके रक्त से पूरा एक तालाब भर दिया था । जैसे द्वारका से सभी वहां पहुंच रहे थे , वैसे ही व्रज वृन्दावन से सभी व्रजवासी नन्द यशोदा के साथ स्यमन्तपञ्चक क्षेत्र में पहुंच चुके थे ।

हस्तिनापुर से कुन्ती आदि सभी लोग भी वहां आ गए । सभी विछुड़े हुए आत्मीयजनों का अद्भुत समागम हो गया । एक दूसरे के गले लग कर एक दूसरे के दुख सुख की बात करने लगे ।

*भागवत के10 वें स्कन्ध के इसी 82 वें अध्याय के 18 वें और 19 वें श्लोक* में कुन्ती ने अपने दुख को सुनाते हुए वसुदेव जी से कहा कि 

*आर्य भ्रातरहं मन्ये आत्मानमकृताशिषम् ।
यद्वा आपत्सु मद्वार्तां नानुस्मरथ सत्तमाः ।। 18 ।।*

  कुन्ती ने कहा कि हे भ्राता वसुदेव ! मैं बहुत अभागिनी हूं ।मैंने पूर्वजन्म में एक भी अच्छे पुण्यकार्य नहीं किए हैं कि इस जन्म में मुझे कुछ सुख शान्ति मिलती । अकाल में ही मेरे पति चले गए । मेरे पांचों पुत्र परम धर्मात्मा हैं । मेरी पुत्रबधू पतिव्रता है ।

इस जन्म में कभी भी कहीं भी हम में से किसी ने भी कोई पाप भी नहीं किया है ।किसी को सताया भी नहीं है । फिर भी पितृछायाहीन सपत्नीक पुत्रों की दशा एक अनाथ बालकों की तरह हो गई है । मैं अभागिनी हूं ,इसीलिए तो आप लोग भी हम लोगों को स्मरण भी नहीं करते हैं । कभी हमारे विषय में आप लोगों ने सोचा भी नहीं है कि कुन्ती कैसे जी रही है ।महात्मा लोग ठीक ही कहते हैं कि

*सुहृदो ज्ञातयः पुत्राः भ्रातरः पितरावपि ।
 नानुस्मरन्ति स्वजनं यस्य दैवमदक्षिणम् " ।। 19 ।।*

 जिसका दुर्भाग्य जगता है , उस मनुष्य को आपत्तिकाल में मित्र छोड़ देते हैं ।पुत्र भी त्याग देते हैं । अपनी जाति के परिवार के लोग भी अनेक दोष देते हुए त्याग देते हैं । यहां तक कि माता पिता भाई भी त्याग देते हैं ।

*अपने दुर्भाग्य को मनुष्य अकेले ही भोगता है ।* इसलिए आप लोगों ने भी अपनी बहिन को आपत्तिकाल में त्याग दिया है । अब देखिए कि कुन्ती के हताशाभरे वाक्यों का वसुदेव जी ने कितना गजब उत्तर दिया है ।

*इसी 19 वें श्लोक के आगे 20 वें और 21 वें श्लोक में*

*अम्ब मास्मानसूयेथा दैवक्रीडनकान् नरान् ।
ईशस्य हि वशे लोकः कुरुते कार्यतेsथवा ।।20 ।।*

 वसुदेव जी ने कुन्ती को मां का सम्बोधन करते हुए कहा कि " हे अम्ब , हे माँ ! इस तरह से दुखी होकर हमारे प्रति दोष भावना मत करो । हम तुम्हारी आपत्ति में तुम्हारे पास नहीं आए , क्यों कि हम सुखी हो गए । ऐसा सोचकर तथा हमें बताकर दुखी मत हो । क्यों कि यहां संसार में सभी जीव अकेले हैं ।यहां कोई भी किसी का नहीं है ।

हम सभी जीव जगतनिर्माता ईश्वर के अधीन हैं ।यहां कोई स्वतन्त्र नहीं है ।सभी देव दानव आदि के तीनों लोकों के जीव उस ईश्वर के खिलौना हैं । यहां कोई जो भी कर्म करता है या करवाता है , वह सब ईश्वर के अधीन होकर ही करता और करवाता है ।

इसलिए इस संसार का सुख और दुख जो भी प्राप्त होता है उसे जीव को भोगना पड़ता है ।

*कंसप्रतापिता सर्वे वयं याता दिशो दश ।
एतर्ह्येव पुनः स्थानं दैवेनासादितः स्वसः ।। 21 ।।*

 देखो , मेरी बहिन ! जब मेरा देवकी के साथ विवाह हुआ था , तभी से कंस ने हमें प्रताड़ित करना प्रारम्भ कर दिया था । 11 वर्ष कारागार में बंद रखा था । मेरे नवजात शिशुओं की हमारे सामने ही हत्या की गई ।

उस कंस के भय के कारण हम सभी दशों दिशाओं में आत्म रक्षा के लिए जहां तहां छिपकर जैसे तैसे समय काट रहे थे । सभी एक दूसरे से विछड़ चुके थे । जिस ईश्वर ने हम सब को अलग अलग कर दिया था ,उसी ने आज हम सब को एक ही स्थान में मिला दिया है ।

जब वह जगदीश्वर चाहते हैं ,तभी कोई किसी से मिलता है और विछुड़ता है । किसके साथ किसका कितने दिन सम्बन्ध रहेगा , ये सब उस जगदीश्वर के हाथ में है । यहां कोई भी जीव न तो जीने में स्वतन्त्र है और न ही मरने में स्वतन्त्र है ।

न किसी के साथ रहने मिलने में स्वतन्त्र है और न ही दूर होने में स्वतन्त्र है । न सुखी होने में स्वतन्त्र है और न ही दुख दूर करने में स्वतन्त्र है ।

क्यों कि यह शरीर , यह सम्बन्ध ,यह संसार हमारा बनाया हुआ नहीं है । इसलिए न तो अपने को अभागी मानना चाहिए और न ही सौभाग्यशाली मानना चाहिए ।
भगवान जो हमें निमित्त बना देते हैं , वही हम बन जाते हैं ।हम सभी जीव भगवान के खिलौने हैं । ऐसा सोचकर ही आनन्द में रहना चाहिए ।

*-आचार्य ब्रजपाल शुक्ल , वृन्दावन धाम*

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