समरथ कहुँ नहिं दोष गुसाईं
*प्रश्न ,,, *
समरथ को नहि दोष गुसाईं ।
इसका अर्थ क्या है ? समझाने की दया करें ।
निवेदक,,,रत्नेश कुमार पटेल , विपतपुरा ,नरसिहपुर ।म ,प्र ,।
*उत्तर*
शांतमना भव !
*"समरथ कहुँ नहिं दोष गुसाईं ।
रवि पावक सुरसरि की नाईं " ।।*
यह चौपाई रामचरितमानस के बालकाण्ड के 69 वें दोहे की 8 वीं चौपाई है । प्रसंग के बिना किसी भी शब्द का सही अर्थ नहीं निकाला जा सकता है ।
प्रसंग यह है कि "सती जी ने पिता के यज्ञ में शरीर त्याग करके हिमालय के यहां जन्म ले लिया था ।पर्वत की पुत्री होने से उनका नाम पार्वती हुआ
सती जी ने शरीर छोड़ते समय भगवान श्री हरि से हर जन्म में शिव जी की प्राप्ति का वरदान मांगा था ।इसलिए श्री हरि की प्रेरणा से नारद जी हिमालय के घर पहुंचे ।
हिमालय ने नारद जी से प्रार्थना की कि कन्या के कुछ गुण दोष बताइए ।
नारद जी ने गूढ़ वाणी में कन्या के गुण बताकर विवाह के विषय में बताकर वर का स्वरूप बताया और कहा कि जो जो मैंने वर के दोष बताए हैं ,वे सब शंकर जी में हैं ।लेकिन संसार में जिन्हें दोष कहा जाता है ,वे सब शंकर जी के गुण हैं ।क्यों कि वे उनके शरीर के आभूषण हैं ।
किन्तु वे अनन्तशक्ति संपन्न भगवान विष्णु के एकात्मक भक्त हैं । ज्ञान, भक्ति और वैराग्य की मूर्ति हैं । इसलिए वे जगतपूज्य हैं । उन्हें दोष नहीं लगता है ।
अब प्रश्न है कि दोष दिखाई देने पर भी दोष क्यों नहीं लगता है ?
तब नारद जी ने कहा कि वे देव दानव मनुष्य आदि के समान नहीं हैं ।
इसी दोहे की चौथी, पांचवीं, छठवीं और सातवीं चौपाई देखिए
*" जौं बिबाहु संकर सन होई ।
दोष उ गुन सम कह सबु कोई ।।4।।*
यदि पार्वती का विवाह शंकर जी से हो जाए तो दोषों को भी सभी कोई गुण मानकर अच्छा ही कहेंगे
अब आपकी चौपाई
*" समरथ को नहिं दोष गुसाईं ।
रवि पावक सुरसरि की नाईं "।* आती है ।
नारद जी ने कहा कि हे हिमालय ! इन्द्रियां ,मन बुद्धि तथा शरीर जिसके अधीन हैं ,उसी को समर्थ कहते हैं ।
अर्थ अर्थात पदार्थ ।पदार्थ अर्थात प्रकृति । सम् + अर्थ = समर्थ । सम -- समान , अर्थ -- प्रकृति ।
जैसे बाहर के पदार्थ जड़ होते हैं और सभी जीव शारीरिक शक्ति का उपयोग करके गाड़ी ,घड़ा , लकड़़ी ,आदि की रक्षा भी कर सकते हैं और नष्ट भी कर सकते हैं ।
उसी प्रकार शरीर की तथा मन, बुद्धि सहित इन्द्रियों की प्रकृति को तथा जिनसे इस शरीर का निर्माण होता है ,उनको समान रूप से नियन्त्रण करने की शक्ति रखता है ,उसे समर्थ कहते हैं ।
जड़ प्रकृति के गुण जिसको प्रभावित नहीं कर सकते हैं ,उसी को समर्थ कहते हैं ।
उदाहरण -- रवि ( सूर्य) पावक ( अग्नि) और सुरसरि ( गंगा) । इन तीनों का संयोग पृथिवी के मल मूत्र सहित सभी वस्तुओं से होता है ,किन्तु न तो ये अशुद्ध होते हैं और न ही इनकी शक्ति क्षीण होती है ।
इसी प्रकार गीता में भगवान ने दूसरे अध्याय में कहा है कि आत्मज्ञान सम्पन्न महापुरुष सम्पूर्ण संसार को भी नष्ट करदे , तो भी उसके मन बुद्धि विचलित नहीं होते हैं और न ही वह दुखी होता है ।
क्यों कि सम्पूर्ण प्रकृति आत्मा से भिन्न है ,जड़ है ।उत्पन्न होकर विनष्ट होती रहती है ।
जो आत्मा को जानता है ,उसमें प्रकृति को भी परिवर्तित करने की अद्भुत शक्ति होती है ।
इसलिए वह निर्दोष होता है ।विश्वामित्र जी ने तो ब्रह्मा जी के समान ही अलग से ही सूर्य, चंद्र ,पृथिवी आदि का निर्माण कर दिया था ।
इसी को सामर्थ्य कहते हैं ।और यह सामर्थ्य प्रत्येक मनुष्य में स्थित है ।किन्तु यह सामर्थ्य तभी प्रगट होता है ,जब शरीर और इन्द्रियां अपने अधीन होते हैं ।
आत्मज्ञानसम्पन्न पुरुष ही समर्थ हो सकता है ।भोगी अज्ञानी मनुष्य पराधीन और असमर्थ होता है ।
राधे राधे ।
*-आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, श्रीधाम वृन्दाबन*
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