प्रश्न - यदि कोई इंसान रास्ता भटक जाए ,तो पुनः अच्छा इंसान बनने के लिए उसे क्या करना चाहिए ?
-अंकित मिश्र, ग्राम. बहोरवां मिश्र, पो. पड़रीबाजार, जि. देवरिया उ. प्र.।
उत्तर-
यह सारा संसार भगवान की चमत्कृतिपूर्ण कृति है ।
जलचर जीव ,थलचर जीव तथा आकाश में उड़नेवाले नभचर जीव सभी की पृथक् पृथक् आकृति और पृथक् पृथक् स्वभाव , बल और बुद्धि को देखकर ही लगता है कि भगवान का क्रीडास्थल है संसार ।
सभी जीवों में भोजन, आवास ,तथा आत्मरक्षा की बुद्धि भी बिना शिक्षा के जन्म से ही होती है ।इन सभी जीवों में मनुष्य की बुद्धि अतिसूक्ष्म है ।
संसार में ऐसा कोई मनुष्य नहीं है जिसे यह ज्ञान न हो कि "मुझे क्या करना चाहिए ?
और मैं क्या कर रहा हूँ । *प्रत्येक मनुष्य अपने कर्मों का साक्षी स्वयं है ।*
मनुष्य ये भी जानता है कि " अच्छे कर्मों से ही सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त होती है और बुरे कर्मों से समाज में अपयश और अपमान होता है ।
इतना ज्ञान तो उस मनुष्य को भी होता है , जिसका जन्म दुष्ट दुष्कर्मी मनुष्य के घर में होता है ।
जिसने जन्म से ही अपने माता पिता को बुरा करते ही देखा है , और स्वयं भी करने लगता है , तब भी बड़े होने पर बिना सिखाए ही उसे इतना ज्ञान होता है कि जो हम कर रहे हैं ,जो हमारे परिवार के लोग कर रहे हैं , वह अच्छा नहीं है ।
क्यों कि बड़ा होने पर बुरे कर्मों का परिणाम भी देखने को मिलने लगता है ।
दुर्गुणों को पकड़ना तो बहुत ही सरल है किन्तु मन बुद्धि में व्याप्त दुर्गुणों को छोड़ना बहुत ही कठिन है ।
मनुष्य में दुर्गुण भी संगति से ही आते हैं और अच्छे गुण भी संगति से ही आते हैं ।
दुर्गुणों को छोड़ना है तो दुर्गुणी की संगति छोड़ना पड़ेगी । भले ही अच्छी संगति न मिले ।
तब भी दुर्गुणी की मित्रता त्यागते ही दुर्गुण छूट जाएंगे ।त्यागने की इच्छा जागृत होती है तो छोड़ने में भी सरलता हो जाती है ।
फिर भी न दुर्गुण न छूटता हो तो सुनिए ।
भागवत के 5 वें स्कन्ध के 11 वें अध्याय के 18 वें श्लोक में राजा रहूगण को राजर्षि भरत जी ने कहा कि
*" भ्रातृव्यमेनं तददभ्रवीर्यमुपेक्ष्याध्येधि तमप्रमत्तः । गुरोर्हरेश्चरणोपोसनास्त्रो जहि व्यलीकं स्वयमात्ममोषम् ।।*
हे राजन् ! प्रत्येक स्त्री पुरुष का मन बहुत बलवान होता है ।बाल्यावस्था से ही सबका मन ऐसे कामों को करने की ओर प्रेरित करता है कि जिससे मनुष्य का विनाश ही होता है ।
यदि कोई मन के कथनानुसार चल देता है तो उसे आजीवन दुख ही दुख प्राप्त होता है ।
इसलिए मनुष्य का मन से बड़ा शत्रु कोई नहीं है । यह मन, मनुष्य को दुष्कर्मों में फंसाकर दुख के समुद्र में धकेल देता है ।
कोई भी मनुष्य अपने आप अपने मन को रोकने समर्थ नहीं हो सकता है । मन ही बलवान होता है ,मनुष्य बलवान नहीं होता है ।
ऐसे निरंकुश बलवान मन को कुमार्ग से अच्छे मार्ग में लाने के लिए मनुष्य को विद्वान संयमी नियम संपन्न गुरू के चरणों की सेवा करते हुए गुरू के बताए गए मार्ग पर चलते हुए भगवान नारायण की भक्ति उपासना करना चाहिए ।
भगवान के चरणों की उपासना तथा समर्थ गुरू की सेवा और उनकी आज्ञा का पालन , ये दोनों ऐसे अस्त्र हैं ,जिससे अज्ञान को काटकर ज्ञानमार्ग सत्मार्ग को पुनः प्राप्त किया जाता है ।
जिसके पास श्रेष्ट गुरू नहीं है , जो मनुष्य भगवान की कथा वार्ता से दूर है , जो कभी किसी की अच्छी बात को नहीं मानता है ,ऐसे स्त्री पुरूषों को न कभी सुख मिला है और न ही ऐसे मनुष्य किसी को सुखी कर सकते हैं ।
जिन्होंने अच्छे लोगों की अच्छी बात नहीं मानी है ,वे ही आज जेल में दुख भोग रहे हैं ।
संसार में ,परिवार में न तो कोई सम्मान है और न ही कोई सहयोग है ।
चाहे कोई नेता हो, धनवान व्यापारी हो , बड़ा आफीसर हो ,या महात्मा हो ,या ब्राह्मण हो , सभी धन बल ,विद्या बुद्धि होते हुए भी दुखी हैं ,क्यों कि इन्होंने अच्छे लोगों की कही गई अच्छी बात नहीं मानी है ।
मनमानी ही तो अभिमानी और दुखी होता है ।
राधे राधे ।
*-आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, वृन्दाबन धाम*
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