Saturday, 4 August 2018

dharm adharm satya asatya in hindi

अधर्म फलता फूलता क्यों है?

कलियुग की विशेषता तो देखिए कि बच्चे ,युवक और वृद्ध सभी स्त्री पुरुष ऐसे लोगों को श्रेष्ठ मानकर उनका अनुकरण करते हैं ,जिनका आचरण ,झूंठ ,और चरित्रहीनता से आदि से अन्त तक भरा हुआ है ।

जैसे -- युवतियां और गृहस्थ महिलाएं नर्तकियों के समान रूप धारण करके स्वयं को श्रेष्ठ मानतीं हैं । 

नर्तकियों के जैसे ही वस्त्र , नर्तकियों के समान ही सौन्दर्यप्रसाधनों का उपयोग , उनके ही समान परपुरुष से मित्रता आदि गुणों का अनुकरण करके भी चाहतीं हैं कि सभ्य समाज में हमारा ऐसे आदर होना चाहिए ,जैसे एक सभ्य सुशीला सहनशीला एक पतिव्रता का आदर होता है । 

धर्म की निंदा ,धार्मिक स्त्री पुरुष की निंदा ,शास्त्रों और भगवान की निंदा करने पर भी सभी लोग हमें ज्ञानसम्पन्ना स्त्री के समान हमारा आदर करें । 

अर्थात आज की शिक्षित अशिक्षित सभी प्रकार की महिलाओं तथा युवतियों का यही दुराग्रह है कि हम परिवार ,समाज ,धर्म ,सभी के विपरीत आचरण करें फिर भी सभी लोग हममें ऐसा आदर भाव रखें , जैसा मीरा के प्रति ,सती सावित्री के प्रति सीता के प्रति रखते हैं । 

ठीक यही मान्यता आज के पुरुष की है । चपरासी से लेकर सभी उच्चपद के सरकारी गैर सरकारी अधिकारी यही चाहते हैं कि हम सारी प्रजा को कितना भी दुखी करें ,परेशान करें ,कितनी  भी घूस लें , लेकिन हमारा आदर तो समाज में एक सभ्य तथा दयालु ,कर्मठ ईमानदार के जैसा ही होना चाहिए 

 सभी नेताओं पुरुषों की भी यही चाह है कि  देश , समाज ,तथा धर्म ,कानून के विरुद्ध चलने पर भी बुरा से बुरा करने पर भी समाज के सभी वर्ग के लोग  ईमानदार ,संघर्षशील परमहितैषी नेता की तरह हमारा सम्मान करें 

युवकवर्ग सोचता है कि हम किसी भी जाति की कन्या से विवाह और अनैतिक अवैध सम्बन्ध करें ,लेकिन परिवार के लोग तथा समाज के लोग हमें एक अच्छा आज्ञाकारी ,समाजसुधारक उदारचरित्र का पुत्र और सामाजिक मनुष्य मानें ।

 ये जो वृत्ति सभी स्त्री पुरुषों में दिखाई दे रही है , इसी को कलियुग का प्रभाव कहते हैं । 

दुर्गुणों से सद्गुणों जैसे सम्मान की कामना होना ही कलियुग है । 

लेकिन ऐसा न किसी युग में हुआ है और न कभी होगा ।तथा न ही ऐसा हो सकता है ।

भागवत के 5 वें स्कन्ध के 18 वें अध्याय के 12 वें श्लोक में शुकदेव जी ने परीक्षित जी से कहा कि 

*" यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिञ्चना सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुराः । हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणा मनोरथेनासति धावतो बहिः ।।*

जिस स्त्री या पुरुष के हृदय में भगवान से अचल प्रीति है , तथा भगवान से कुछ भी मांगने की इच्छा नहीं होती है । 

उसी स्त्री पुरुष के हृदय में धर्म ,ज्ञान ,वैराग्य के सहित सभी सत्य सदाचार आदि गुणों का तथा देवताओं का निवास होता है ।

 जिस स्त्री पुरुष के हृदय में भगवान की थोड़ी सी भी श्रद्धा भक्ति नहीं है ,उसमें सत्य सदाचार ,दया ,परोपकारादि श्रेष्ठ गुण कहां से आ जाएंगे ? अर्थात कहीं से भी नहीं । 

अपने मन की इच्छा के अनुसार चलने वाले असत्यवादी ,व्यभिचारी स्वच्छन्दचारी ,निर्दयी ,अतिस्वार्थी भोगी स्त्री पुरुष में न कभी श्रेष्ठ गुण होते हैं और न ही ऐसों के अनुयायियों में श्रेष्ठ गुण होते हैं । 

सत्य, सदाचार ,धर्म, भक्ति के बीज की रक्षा भगवान के भक्त ही करते हैं ,संसार के भक्त तो अपनी रक्षा नहीं कर पाते हैं तो सत्य की रक्षा क्या करेंगे ।
राधे राधे ।

*-आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, श्रीधाम वृन्दाबन*

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