*प्रश्न उस समय क्या करना चाहिए , जब कुछ भी करने में मन ना लग रहा हो ? जूही सिंह, दयालबाग,आगरा, उ. प्र. ।
*उत्तर सबसे पहले तो आप ये जान लीजिए कि कभी कभी अकारण ही ऐसा क्यों हो जाता है कि कहीं भी मन नहीं लगता है ?
रोग का कारण पता चल जाने पर ही कुछ उपाय किया जा सकता है. भगवान ने गीता के *14 वें अध्याय के 13 वें* श्लोक में कहा है कि
*" अप्रकाशोsप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च ।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ।।*
हे अर्जुन ! प्रत्येक स्त्री पुरुष के शरीर में प्रकृति के तीन गुण होते हैं ।
(1) सत्वगुण, (2) रजो गुण तथा, (3) तमोगुण ।
इन तीनों गुणों में से जब एक गुण की शरीर में वृद्धि होती है तो दो गुण अपने आप प्रभाव हीन हो जाते हैं । इस श्लोक का अर्थ देखिए ।
जब मन में तमोगुण की वृद्धि होती है तो मन में चार प्रकार का परिवर्तन होता है ।
(1) अप्रकाशः -- अर्थात बुद्धि में विचार आना बंद होजाता है । ऐसा लगता है कि क्या करूं और क्या न करूं ? अविवेक को अप्रकाश कहते हैं ।
(2) अप्रवृत्तिश्च -- कुछ भी करने की इच्छा नहीं होती है । तमोगुण से प्रभावित बुद्धि का प्रभाव मन को प्रभावित करता है । इसलिए जब बुद्धि में ही कोई विचार नहीं आएगा तो मन तो निष्क्रिय हो ही जाएगा ।इसलिए किसी भी काम को करने में प्रवृत्ति नहीं होती है । मन ही नहीं लगता है ।कोई अच्छी बात भी कहता है तो चिढ़ होने लगती है ।
(3) प्रमादः -- अर्थात काम तो करना ही पड़ेगा,लेकिन जब तक तमोगुण का प्रभाव रहेगा,तब तक इतना प्रमाद मन में रहेगा कि कोई भी काम समय से नहीं होगा ।
जब कुछ भी करने का मन ही नहीं होता है तो नहाना धोना,खाना पीना भी समय से नहीं हो पाएगा । आलस्य में ही दिन बीत जाएगा । इसी को प्रमाद कहते हैं ।
(4 ) मोहः -- अचानक ही मनोबल गिर जाएगा । जो काम करना बहुत ही आवश्यक है ,उसको करने में ही उत्साह भंग होने लगेगा ।ऐसा लगता है कि हो पाएगा कि नहीं ? अर्थात आज की भाषा में कहें तो "नैगेटिव विचार आने लगते हैं ।इसी को मोह कहते हैं ।
शरीर की प्रत्येक क्रिया बुद्धि और मन से ही होती है ।यह सब तमोगुण के प्रभाव से ही होता है । आपका यदि कुछ भी करने का मन नहीं हो रहा है तो समझ लीजिए कि आपके शरीर में तमोगुण की वृद्धि हो गई है ।
अब आपका रोग समझ में आ गया है तो अब उपाय भी मिल जाएगा ।
उपाय को करने से मन फिर से उत्साह से और विश्वास से भर जाएगा ।
तमोगुण और रजोगुण के दुष्प्रभाव से बचने का उपाय भी भगवान ने *गीता के 18 वें अध्याय के 62* वें श्लोक में बताया है कि
*तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तस्मात् प्रसादात् परां शान्ति स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ।।*
हे अर्जुन ! अपने मन को सदा ही शान्ति देनेवाला न तो कोई मनुष्य जाति में कोई स्त्री पुरुष है और न ही कोई वस्तु या कोई स्थान है । इसलिए एकमात्र भगवान ही प्रकृति से प्राप्त होनेवाली अशान्ति को दूर कर सकते हैं । ऐसा निश्चय करके भगवान की ही शरण को स्वीकार कर लो ।
उनकी ही कृपा से उनकी ही प्रसन्नता से मन और बुद्धि को पूर्णबल प्राप्त होगा,शांति प्राप्त होगी तथा जो मन में कामना है वह भी पूर्ण होगी.
अंत में संसार के सभी कर्तव्यों को सुखपूर्वक निर्वाह करके भगवान को ही प्राप्त कर लोगे । जब कहीं भी मन न लगे तो मन के साथ जबरदस्ती करके नहा धोकर भगवान के नाम का जप करना चाहिए ।
आंख बंद करके कुछ समय तक पूजाघर में बैठना चाहिए । तमोगुण के शांत होते ही पहले से भी अधिक ऊर्जा प्राप्त हो जाएगी ।
न मानो तो करके देखो ।।
राधे राधे ।
*-आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, वृन्दाबन धाम*
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