भारत में गाय को माताका
दर्जा मिला फिर भी असुरक्षित
क्यों है?
जब इस प्रश्न पर विचार किया जाता है तो पता चलता है कि इसके एक नही
अनेक कारण हैं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण है कि भारत ने दूसरों को सम्मान
देते-देते अपने सांस्कृतिक मूल्यों को या तो भुला दिया या फिर दूसरों को प्रसन्न
करने के लिए उन पर अधिक बल नही दिया।
इसे कुछ स्वार्थी विदेशी लेखकों ने या विद्वानों ने भारत की
परंपरागत सहिष्णुता या उदारता के रूप में महिमामंडित किया और इस महिमामंडन के
माध्यम से वे अपना स्वार्थ सिद्घ कर गये।
हम भारतीय अपने स्वभाव से सहिष्णु या उदार हैं, इसमें दो मत नही हैं-परंतु हमें कितना सहिष्णु या उदार होना
चाहिए? हम अपने विषय में ही यह भूल गये।
इसी को वीर सावरकरजी ने हमारी ‘सदगुण
विकृति’ कहा है। जब विदेशियों ने हमारी सहिष्णुता या उदारता का
महिमामंडन करना आरंभ किया और उन्होंने हमें यह समझना आरंभ किया कि-‘आप तो बहुत अच्छे हैं, आप अपनी बात पर कभी हठीलापन नही दिखाते
हैं, आप दूसरों
का सम्मान करना जानते हैं, दूसरों के
अपराधों को आप क्षमा कर देते हैं, दूसरे जैसे
चाहे रहें, तुम इस पर
कोई आपत्ति नही करते हो, इत्यादि’-तो हम अपने सिद्घांतों से कुछ दूर हो गये
और हमने अपनी शास्त्रार्थ परंपरा का त्याग कर दूसरों की अतार्किक और अवैज्ञानिक
बातों को भी मानने की भूल करनी आरंभ कर दी।
आज भी जब कहीं ईसाइयों या इस्लाम वालों के द्वारा हिंदू के कराये जा
रहे धर्मांतरण पर हम कहीं मुखरित होते हैं या कहीं गाय काटी जाती है या कहीं ऐसी
ही मजहबी उन्माद की घटना घटित होती है, तो ‘गंगा-जमुनी संस्कृति’ का राग
अलापने वाले बड़ी शीघ्रता से बाहर निकलते हैं और हमें हमारी परम्परागत सहिष्णुता
और उदारता को अपनाने का उपदेश देने लगते हैं।
जहां-जहां ‘गंगा-जमुनी संस्कृति’ का राग अलापा जाता है वहीं समझ लो कि
हिंदू को मिटाने और घटाने की योजना पर कार्य किया जा रहा है।
देश में जितने लोग इस काल्पनिक ‘गंगा-जमुनी
संस्कृति’ की बात करने वाले हैं-उनसे आप गाय की रक्षा की अपेक्षा नही कर
सकते।
इन लोगों ने देश में इस विचार को प्रगतिशीलता के नाम पर प्रसारित किया है कि
प्राचीनकाल में आर्य लोग या भारत के पूर्वज भी गोमांस खाया करते थे।
इस धारणा को इन्होंने देश के विद्यालयों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित
कराया है जिससे नई पीढ़ी में यह कुसंस्कार जन्म ले सके कि भारत में गाय मांस खाना
प्राचीनकाल से जारी है। इस धारणा के रूढ़ होते जाने से ‘गंगा-जमुनी संस्कृति’ की बेल हरी
बनी रहेगी और धीरे-धीरे वह सारे भारत में फैल जाएगी।
इस विचार का दूसरा लाभ इन लोगों को यह मिल रहा है कि कुछ लोग विदेशी
मजहबों के मानने वालों के प्रति आकर्षित हो रहे हैं, वे मानने
लगे हैं कि इस्लाम और ईसाइयत दोनों मजहब प्रगतिशील हैं, जबकि हिंदू धर्म रूढिय़ों में जकड़ा हुआ है।
तीसरे ऐसी मान्यता से हमारी युवा पीढ़ी देर-सवेर यह मानने लगेगी कि
भारत के क्रांतिकारियों ने अनावश्यक ही देश को स्वतंत्र कराने की योजना बनायी थी
या देश में देर तक जिन लोगों ने जब भी जिस शताब्दी में भी देश को स्वतंत्र कराने
के लिए संघर्ष किया वे मूर्ख थे।
इस प्रकार की योजना को ‘गंगा-जमुनी
संस्कृति’ के नाम से सिरे चढ़ाने की योजना है, जिसे धीरे-धीरे देश के धर्मनिरपेक्ष दलों ने चढ़ाने या फैलाने
का प्रयास किया है। इससे गाय को केवल एक पशु मानने का विचार प्रचार पा रहा है।
इन धर्मनिरपेक्ष दलों की सोच से इस्लाम और ईसाइयत को लाभ मिल रहा है
और इन सबके सामूहिक प्रयास से जितने हिंदू इनके रंग में रंगते जा रहे हैं वे सब
भारत के लिए सिरदर्दी उत्पन्न करने वाले हैं। भारत को मिटाने का सपना देखने वाले
ऐसे सभी लोग बड़ी सावधानी से अपना कार्य कर रहे हैं।
किसी का उद्देश्य देश को ‘लाल सलाम’ के रंग में रंगने का है, तो किसी का
उद्देश्य हरे रंग में या सफेद रंग (ईसाइयत) में रंगने का है। सबका एक छुपा हुआ
एजेंडा है।
इन सबके चलते जैसे ही कहीं गाय, गंगा, गीता की बात कही जाती है तो इन सबका सामूहिक विरोध एक साथ आता
है कि देश को भगवा रंग में रंगने की तैयारी हो रही है।
‘भगवा रंग’ देश में एक
गाली हो गया है, जबकि लाल सलाम, हरा रंग या सफेद रंग देश की उन्नति, प्रगति और विकास की दिशा निर्धारित करने वाले रंग मान लिये गये
हैं। इसीलिए जे.एन.यू. में राष्ट्रद्रोही पलते हैं, और उनके
समर्थन में बड़े-बड़े राजनीतिक दलों के नेता उतर आते हैं।
भगवा को चुप-चुप खाने
वाले रंग प्रगतिशील हैं और भगवा दुर्गति का प्रतीक है, ऐसा प्रचार देश में चल रहा है। गाय को भगवा के साथ जोड़ दिया
गया है, इसलिए गाय भी साम्प्रदायिक हो गयी है।
‘लाल सलाम’ अपने
स्वार्थ के लिए सफेद और हरे रंग को साथ ले रहा है। उसे आशा है कि हिंदुत्व की
शक्ति से लडऩे के लिए और देश की गाय संस्कृति को मिटाने के लिए यदि इनका समर्थन ले
लिया जाए तो कोई बुरी बात नही है।
इसी प्रकार हरा रंग अपनी क्रांति की सफलता के लिए लाल और सफेद को तथा
सफेद अपनी सफलता के लिए लाल और हरे को साथ ले रहा है।
सबका सामूहिक उद्देश्य
है-देश का विखण्डन। देश के हिंदू समाज को ये लोग अपने-अपने उद्देश्यों की पूर्ति
के लिए विखण्डित रखना चाहते हैं।
इसलिए उनके बीच आरक्षण की, ऊंच नीच की
या ऐसी ही अन्य दूषित भावनाओं की दुर्गंध को फैलाये रखना चाहते हैं।
देश के धर्मनिरपेक्ष दलों को पता होना चाहिए कि जब देश से गाय
संस्कृति का लोप करके वे सफलता का घोष करेंगे तब उन्हें पता चलेगा कि उनका
परंपरागत शत्रु हरा रंग भी है, और सफेद रंग
भी है-तब क्या होगा? किसी के पास
इस प्रश्न का उत्तर नही है।
विचारधाराओं की इस लड़ाई में गाय के अस्तित्व को मिटाने का लक्ष्य
बड़ी सावधानी से निर्धारित किया गया है। इस लड़ाई में विदेशी कम्पनियों के पेय
पदार्थ देश में इसलिए बिकवाये जा रहे हैं कि इस देश में गाय अनुपयोगी होती चली जाए,
विदेशी कंपनियों के कृत्रिम खाद या कीटनाशक इसलिए मंगाये जा रहे हैं
कि गौमाता की उपयोगिता को लोग भूल जाएं। इससे देश का बहुत भारी अहित हो रहा है।
देश को विचारधाराओं के इस संघर्ष को समझना होगा। इसके उद्देश्य को समझना होगा, अन्यथा ‘भारत तेरे
टुकड़े होंगे इंशा अल्लाह, इंशा अल्लाह’ कहने वाले सफल हो जाएंगे।
भारत गाय का उपासक देश है, इसके ऋषियों
ने गाय की उपयोगिता और महत्व को समझकर इसे अपने साहित्य और समाज में बहुत ही सम्मानपूर्ण स्थान दिया है। हो सकता है कि धार्मिक
भावुकता में बहकर उसमें कहीं कोई अतिवादिता का पुट आ गया हो-पर इसका अर्थ यह तो
नही कि गाय की उपयोगिता और महत्व कम हो गया।
किसी धार्मिकता के पुट से गौमाता का महत्व बढ़ता ही है, घटता नही है और यदि ऐसा पुट किन्हीं लोगों को अखरता है तो भारत
की उदारता के सहारे अपनी दुकान चलाने वाले और भारत में ‘गंगा-जमुनी संस्कृति’ का राग अलाप
कर लोगों की जबान बंद करने वाले लोग यह भी समझ लें कि भारत शास्त्रार्थ परंपरा का
भी देश है।
अत: देश की संसद में बात-बात पर चर्चा या बहस की मांग करने वाले लोग ‘देश में गाय की उपयोगिता और महत्व’ पर या ‘मानव जीवन
के लिए गाय की महत्ता’ जैसे विषयों
पर भी बहस या शास्त्रार्थ करा लें, जिनका पक्ष
अधिक मानवीय, उदार और वैज्ञानिक हो उसी को इस देश का
राजधर्म घोषित कराके स्वीकार कर लिया जाए।
लोकतंत्र में सिरों की गिनती को अर्थात किसी प्रदेश की विधानसभा में
या देश की संसद में विधायकों या सांसदों के सिरों की गिनती को लोकतंत्र की
जय-पराजय का या सफलता और असफलता का सटीक प्रमाण नही माना जा सकता।
लोकतंत्र में जय-पराजय या सफलता और असफलता तो तर्क तराजू पर
तोलकर बोले जाने वाले प्रमाणों से सिद्घ होती है। अत: शास्त्रार्थ लोकतंत्र की
पहली अनिवार्यता है जो लोग शास्त्रार्थ से भागकर सिरों की गिनती के आधार पर
लोकतंत्र को हांकने की वकालत कर रहे हैं, वास्तव में
वे ही लोकतंत्र के हत्यारे हैं।
लोकतंत्र की व्याख्या को अपने-अपने रंग में रंगने
की मूर्खता करना देश के साथ अपघात करना है।
जिन लोगों ने देश की वैदिक संस्कृति को धीरे-धीरे मिटाने का
कार्य इस देश के विद्यालयों के पाठ्यक्रम से किया और धीरे-धीरे लोगों के
मन-मस्तिष्क में गाय को केवल एक ‘पशु’ मानने का कुसंस्कार पैदा किया, अब वही
पिछले 70 वर्ष में अपने द्वारा किये गये पापकर्म का फल देखना चाहते हैं
कि हमें अपने इस कार्य में कितनी सफलता मिली?
हमारा मानना है कि देश के मूल्यों की रक्षा पर मतदान से काम नही
चलेगा-शास्त्रार्थ से काम चलेगा, वैज्ञानिकों
के निष्पक्ष अनुसंधानों से काम चलेगा, विज्ञान के
युग में विज्ञान के तर्क और सत्य आधारित अनुसंधानों से काम चलेगा। उसके लिए साहस
करने की आवश्यकता है। मतदान कराके निर्णय देने की मूर्खताओं से तो देश का मन
भरचुका है। इससे देश का अहित ही हुआ है-देश का भला कुछ नही हुआ।
शास्त्रार्थों को लोकतंत्र की रीढ़ बनाया जाना चाहिए। वास्तविक अर्थों
में भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी यही है कि किसी भी मुद्दे पर स्वतंत्र
विचारों के आदान-प्रदान की व्यवस्था देश में हो।
परंतु एक निष्कर्ष निकलते ही उस
निष्कर्ष के विपरीत मतों को वैसे ही नगण्य घोषित किया जाना चाहिए जैसे किसी
न्यायिक निर्णय में देश के न्यायालयों के न्यायाधीशों की किसी जूरी में विपरीत मत
रखने वाले जज का विचार नगण्य माना जाता है, और बाहर
केवल एक ही निर्णय सुनाया जाता है।
अलग-अलग मतों को मान्यता देते चले जाना उचित नही है। जो मत अवैज्ञानिक, अतार्किक, अमानवीय और
अलोकतांत्रिक सिद्घ हो जाये उसे किसी का निजी मत कहकर भी जारी रखना एक प्रकार का
तुष्टिकरण ही है। इसी
तुष्टिकरण के चलते गाय जैसे प्राणी की रक्षा करने में हम असफल रहे हैं।
टी.वी. चैनलों पर भी गोमांस को लेकर लोग तर्क देते दिखाई पड़ते हैं कि
कोई क्या खाता है? यह उसी पर
छोड़ देना चाहिए। इस तर्क को लोकतंत्र की आत्मा के अनुकूल माना जाता है, परंतु वास्तव में यह तर्क अलोकतांत्रिक है।
क्योंकि कोई क्या खाता है-क्या नही खाता है-इसे निश्चित करने के
लिए यह देखना आवश्यक है कि हम जो कुछ खाते हैं उसका लोकस्वास्थ्य पर क्या प्रभाव
पड़ता है? यदि हमारे खाने या पीने का लोकस्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता
है तो ऐसा खानपान छुडवाना हमारा राष्ट्रधर्म हो, यही
लोकतंत्र की आत्मा के अनुकूल है, क्योंकि
लोकतंत्र लोक की रक्षा का तंत्र है।
गाय का मांस हमारे लिए और लोक के लिए कितना घातक या हानिकारक है
और यह प्राणी जीवित रहते कितना उपयोगी है? हमारी बहस
का फोकस इसी पर होना चाहिए। तभी हम सही निष्कर्ष निभा सकते हैं।
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