दरअसल, दूध में
मिलावट की समस्या देश में इस कदर फैल गई है कि न्यायालय को बार-बार इस संबंध में
निर्देश देने पड़ रहे हैं।
पिछले साल उत्तर प्रदेश के 'फूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन' ने खुलासा किया था कि मदर डेयरी जैसी विश्वसनीय एजेंसी के
दूध के नमूने में डिटर्जेंट पाया गया है।
ऐसे ही और भी खुलासे होते रहते हैं। यह कटु सत्य है कि आज देश में
मिलावटी दूध का कारोबार बहुत फैल चुका है और इस संबंध में दूध मुहैया कराने वाली
कोई भी एजेंसी विश्वसनीय नहीं रह गई है।
कम से कम लागत में अधिकाधिक मुनाफा कमाने की दुष्प्रवृत्ति
के कारण ग्राहक की सेहत से बेपरवाह दूध व्यापारियों द्वारा इसमें पानी से लेकर
डिटर्जेंट, यूरिया जैसी बेहद हानिकारक
चीजें तक मिलाई जा रही हैं।
देश में दूध में मिलावट की स्थिति कितनी भयावह है, इसे पिछले वर्ष हुए एक सर्वेक्षण से प्राप्त कुछ आंकड़ों के
जरिये बखूबी समझा जा सकता है।
शुद्ध दूध की उपलब्धता के संबंध में खाद्य सुरक्षा एवं मानक
प्राधिकरण (एफएसएसएआई) के एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण में पिछले वर्ष जो तस्वीर सामने
आई है, वह न सिर्फ चौंकाती है बल्कि डराती भी है।
इस सर्वेक्षण में
देश भर में परीक्षण किए गए दूध के नमूनों में से सत्तर फीसद नमूनों में मिलावट पाई
गई थी। चौंकाने वाली बात तो यह है कि इस सर्वेक्षण के अंतर्गत बिहार, झारखंड, पश्चिम
बंगाल, ओडि़शा, मिजोरम
आदि राज्यों के दूध के नमूनों में से एक भी नमूना दूध की शुद्धता के मानक के
अनुरूप नहीं ठहरा। अर्थात सब में भारी मात्रा में मिलावट पाई गई।
इनके अतिरिक्त, पंजाब के
दूध के नमूनों में 81, दिल्ली
में 70, गुजरात में 89, महाराष्ट्र
में 65, राजस्थान में 76, जम्मू-कश्मीर
में 83 और मध्यप्रदेश में 48 प्रतिशत
मिलावट पाई गई।
गोवा और पुडुच्चेरी, मात्र दो
ऐसे राज्य हैं, जिनके दूध के नमूने शत-प्रतिशत
शुद्ध व तय मानकों के अनुरूप थे।
मिलावट के लिए प्रयोग की जाने वाली वस्तुओं में सर्वाधिक मात्रा
पानी की है। पानी की मिलावट के पीछे दूध व्यापारियों का सिर्फ इतना मकसद होता है
कि कम दूध को ज्यादा करके अधिक मुनाफा कमाया जा सके।
अब मुनाफा कमाने के अंधोत्साह में ये व्यापारी शायद यह भूल जाते
हैं कि पानी की मिलावट से दूध की गुणवत्ता तो नष्ट हो ही जाती है, पानी में मौजूद कीटाणु आदि दूध में पहुंच कर लोगों के
स्वास्थ्य को हानि भी पहुंचा सकते हैं।
इतना ही नहीं, पानी
मिलाने के बाद दूध का गाढ़ापन कम होता है, तो पकड़े
जाने से बचने के लिए वे दूध का गाढ़ापन, स्वाद और
घनत्व बढ़ाने के लिए उसमें यूरिया, स्टार्च, फॉर्मेलिन, डिटर्जेंट, स्किम मिल्क पावडर, न्यूट्रालाइजर्स
आदि तमाम हानिकारक तत्त्वों की मिलावट कर देते हैं।
उपर्युक्त सर्वेक्षण में ही दूध के छियालीस प्रतिशत नमूनों
में जहां पानी की मिलावट पाई गई, वहीं
बाकी में डिटर्जेंट, यूरिया
आदि अनेक हानिकारक तत्त्वों की।
इसी संदर्भ में उल्लेखनीय होगा कि आहार विशेषज्ञों के अनुसार अभी
तक तीन सफेद खाद्य वस्तुओं को स्वास्थ्य के लिए खतरनाक माना गया था जिनमें नमक, शकर और मैदा शामिल थी, लेकिन अब
इस सूची में दूध भी शुमार हो गया है।
'द इंडियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च' ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि डिटर्जेंट के कारण खाद्य
विषाक्तता (फूड पॉइजनिंग) और आंतों व पाचन तंत्र से जुड़ी समस्याएं हो सकती हैं।
इसके अलावा दूध में मिलावट के कारण हृदय संबंधी समस्या, कैंसर और कई बार मृत्यु तक हो सकती है।
जिस दूध में यूरिया, कास्टिक
सोडा या फॉर्मेलिन की मिलावट है, उसे पीने
से तुरंत पेट संबंधी दिक्कतें शुरू होती हैं और लंबे समय में यह गंभीर बीमारी में
बदल जाती है, जो जानलेवा हो सकती है।
लेकिन
अपनी मुनाफाखोरी के आगे लोगों के स्वास्थ्य की चिंता दूध व्यापारी क्यों करें, तिस पर कानून का लचरपन भी उन्हें मिलावट के रास्ते पर ले
जाता है।
इन सब तथ्यों के बाद यह समझना आसान हो जाता है कि देश में दूध में
मिलावट का धंधा किस स्तर पर चल रहा है और इससे लोगों का स्वास्थ्य किस हद तक
दुष्प्रभावित हो सकता है।
पर विडंबना यह है कि लोगों के स्वास्थ्य से जुड़े इस
बेहद गंभीर मसले को लेकर देश की शीर्ष अदालत जितनी गंभीर है, उसकी तुलना में सरकारें तनिक संजीदा नहीं दिखतीं।
सरकारों की
अगंभीरता को इसी बात से समझा जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कई बार कहे
जाने के बावजूद केंद्र या राज्य सरकारों ने दूध में मिलावट की रोकथाम के लिए
संबंधित कानून को सख्त बनाने की दिशा में अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया है।
यह बेहद अफसोस की बात है कि जो काम सरकारों को खुद अपनी पहल से
करना चाहिए उसके लिए अदालत को निर्देश जारी करने पड़ते हैं, वह भी एक बार नहीं, बार-बार।
खाने-पीने की चीजों में मिलावट रोकने का मसला पुलिस को राजनीतिक नियंत्रण से मुक्त
करने जैसा कोई नीतिगत मसला नहीं है, जिस पर
न्यायपालिका और कार्यपालिका का अलग-अलग रुख हो। यह तो एक आम सहमति का विषय है। फिर
कारगर पहल क्यों नहीं हो पा रही है? लोक-हित
के इतने बड़े मुद््दे पर सरकारी या प्रशासनिक इच्छाशक्ति का हैरत में डाल देने
वाला अभाव क्यों है!
अगर मिलावटी दूध को लेकर मौजूदा कानून व सजा आदि पर एक नजर डालें
तो हम समझ सकते हैं कि यहां मामला कितना लचर है। अभी दूध में मिलावट करने व इसकी
बिक्री करने के लिए न्यूनतम छह महीने की सजा का प्रावधान है, जो कि इस अपराध की गंभीरता के लिहाज से बेहद कम है।
मिलावट
का यह अपराध लोगों के जीवन को खतरे में डालने के अपराध जैसा है, अत: इसे रोकने केलिए कानून और सख्त होना चाहिए। पर दूध में
मिलावट रोकने कानून ऐसा है कि मिलावटखोर के पकड़े जाने पर भी अक्सर इसमें सजा की
नौबत आती ही नहीं है।
इस कानून में मिलावट करने वालों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज
करने का कोई प्रावधान नहीं है। अब जब प्राथमिकी ही दर्ज नहीं होती, तो पुलिस कार्रवाई क्यों करे! आखिरकार अधिकाधिक मामले
लेन-देन के द्वारा निपटा दिए जाते हैं।
इन्हीं सब विसंगतियों के मद््देनजर सर्वोच्च न्यायालय का कहना है
कि दूध में मिलावट रोकने के लिए मौजूदा कानून में समुचित संशोधन किए जाएं व इस
अपराध की सजा बढ़ाई जाय।
लेकिन न्यायालय के बार-बार निर्देश देने के बावजूद
सरकारें जाने क्यों इसको लेकर अब तक निष्क्रिय बनी हुई हैं। आज जरूरत यह है कि दूध
में मिलावट से संबंधित कानून में संशोधन कर प्राथमिकी दर्ज करने की व्यवस्था की
जाए तथा वर्तमान में निर्धारित सजा को भी और सख्त किया जाए।
साथ ही, स्वास्थ्य विभाग में फूड इंस्पेक्टरों की कमी को भी दूर करने
की जरूरत है ताकि मिलावटखोरों के खिलाफ सही ढंग से और समय से कारवाई करते हुए उन
पर नकेल कसी जा सके।
इन सब चीजों के लिए पहली आवश्यकता यही है कि हमारी सरकारें इस मसले
की गंभीरता को समझें कि यह देश के नागरिकों के स्वास्थ्य से जुड़ा मसला है। अगर
केंद्र व राज्य सरकारें इस विषय में संजीदगी और दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ दूध में
मिलावटखोरी की रोकथाम के लिए उक्त कदम उठाएं तो धीरे-धीरे ही सही, इस समस्या पर काबू पाया जा सकता है
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