Thursday 16 August 2018

kshatriya dharma

जाति तो मनुष्य की बनाई है?
*प्रश्न ==* क्षत्रिय का नियम और धर्म क्या है ?  
शैलेन्द्र सिंह ,कोलार रोड, भोपाल म.प्र.।

*उत्तर ==* धर्म व्यक्तिगत होता है । धर्म का पालन करना पड़ता है ।किन्तु अधर्म की ओर तो प्रवृत्ति सभी मनुष्यों की होती है । 

जैसे आजकल आपने देखा है कि प्रायः सभी शिक्षित व्यक्ति नौकरी लगने के पहले तक बहुत ही ईमानदार और समाज के सहयोगी दयालु होते हैं । किन्तु सरकारी नौकरी लगते ही वह बेईमान, निर्दयी समाज का असहयोगी अहंकारी मनुष्य बन जाता है । 

रिटायर होने के बाद फिर उसी व्यक्ति से मिलिए तो फिर सज्जन जैसा व्यवहारिक हो जाता है । फिर तो बहुत ईमानदारी की बातें करने लगता है ।जब ईमानदारी कर्तव्यपरायणता चाहिए थी ,तब तो वह समाज और सरकार का दुश्मन बना रहा, पदहीन, प्रभावहीन होने पर सरल नम्र हो गया । 

इसी को स्वभाव कहते हैं । संगति में आकर और लोभ के कारण जो कर्म होता है ,उसे स्वभाव नहीं कहते हैं ।

 "भगवान ने गीता के 18 वें अध्याय के 42 वें , 43 वें और 44 वें श्लोकों में ब्राह्मण, क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र के स्वाभाविक गुण बताए हैं ।  

इसके पहले 41 वें श्लोक को समझना आवश्यक है । *क्यों कि आजकल लोग कहते हैं कि जाति तो मनुष्य की बनाई है ।* लेकिन ऐसा नहीं है ।

कोई भी व्यक्ति अपने नाम के आगे किसी भी जाति का शब्द तो लिख सकता है ,किन्तु उस जाति के गुण भी आने चाहिए । 

जाति जन्म से ही होती है ,इसीलिए उस जाति के गुण भी जन्म से ही होते हैं । शब्द बदलने में मनुष्य स्वतन्त्र है ,लेकिन गुण तो उसके जाति के दिख ही जाते हैं ।

 *"ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप ।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ।। 18*

भगवान ने कहा कि हे अर्जुन ! ब्राह्मण, क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र , इन चारों के "स्वभावप्रभवैः गुणैः -- जन्मजात स्वभाव से उत्पन्न होने वाले गुणों के कारण इनके अलग अलग कर्म विभक्त किए गए हैं । 

स्वभाव कहते ही उसे हैं ,जो जन्म से मृत्यु तक एकसमान रहता है ।स्वभाव को बदलना ही तो संसार में कठिन काम है ।

*"स्वभावप्रभवैः गुणैः "* का आद्यशंकराचार्य जी ने अर्थ बताया है कि " स्वभाव अर्थात " *ईश्वरस्य प्रकृतिः त्रिगुणात्मिका माया सा प्रभवो येषां गुणानां ते स्वभावप्रभवाः "।* 
ईश्वर की सत्वगुणी ,रजोगुणी और तमोगुणी माया  के गुणों से उत्पन्न गुणों को स्वभाव कहते हैं ।

 भगवान ने अपनी माया से जिसको जैसा जन्म से ही बनाया है वह वैसा ही रहता है । इसलिए ब्राह्मण ,क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के गुण आचरण से ,वार्ता से , बुद्धि के निर्णय से कभी न कभी प्रगट हो ही जाते हैं 

अब क्षत्रिय का जन्मजात स्वाभाविक गुण और धर्म गीता के 18 वें अध्याय के 43 वें श्लोक को देखिए ।

*शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।
दानमीश्वरभावश्च क्षत्रकर्म स्वभावजम् ।।*

हे अर्जुन ! क्षत्रिय जाति के मनुष्य में इतने गुण स्वाभाविक माँ के गर्भ से ही आते हैं । क्षत्रिय की कन्या से क्षत्रिय जाति के पुरुष से जो सन्तान होती है ,वही क्षत्रिय जाति का कहा जाता है । अन्यथा वह वर्णसंकर होता है ।मिलावट में तो क्षत्रिय जाति का गुण उतना नहीं होता है । 

(1) शौर्य, सिंह के समान अन्त तक निर्भीकता ।

 (2) तेज, दूसरों से न दबने के  स्वभाव को तेज कहते हैं ।

(3) धृति, धैर्य, बड़ी से बड़ी आपत्ति में भी उत्साह का नाश न होना ,धृति कहलाता है ।

 (4)दाक्ष्य , कार्य करने की कुशलता । संकट में फंस जाने पर शीघ्र ही उचित निर्णय लेने की शक्ति को दाक्ष्य कहते हैं ।

( 5) युद्ध में अपलायन । युद्ध में मृत्यु निश्चित हो , लेकिन भागकर बच भी सकते हों ।फिर भी बचने का उपाय न करके युद्ध करते रहना ,ये शुद्ध क्षत्रिय का स्वभाव है । 

( 6) दान देना । अर्थात क्षत्रिय धन का और प्राणों का लोभी नहीं होता है ।
ब्राह्मण से लेकर सभी मनुष्यों का धन से सहयोग करना , क्षत्रिय का स्वभाव है ।क्षत्रिय याचक नहीं होता है ।भिखारी नहीं होता है । 

(7) ईश्वरभाव । अर्थात सबके ऊपर समानरूप से शाशन करने की शक्ति और सामर्थ्य । इतने गुण तो बिना शिक्षा के जन्मजात स्वभाव में ही क्षत्रिय के होते हैं । 

ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को यज्ञोपवीत कराकर चारों वेदों तथा धर्मशास्त्रों का अध्ययन विद्वान ब्राह्मण से करना चाहिए ।ब्राह्मण भक्त,देश भक्त,भगवान का भक्त,तथा सर्वरक्षक होना क्षत्रिय का धर्म है 

क्षत्रिय का गुरू मात्र ब्राह्मण ही हो सकता है ।और कोई नहीं ।यदि महात्मा से भी दीक्षा लेनी हो तो ब्राह्मण ही होना चाहिए । अन्य जाति के महात्मा से दीक्षा तो किसी को भी नहीं लेना चाहिए । 

तेजस्वी क्षत्रिय ,तेजस्वी ब्राह्मण तथा व्यापारकुशल उदार धार्मिक वैश्य से ही समाज सुखी रहता है ।इन तीनों के अपने धर्म छोड़ देने पर समाज का विनाश हो जाता है ।

*वैश्य लोभी हो जाता है तो समाज में प्रत्येक वस्तु कीमत से अधिक और मिलावट वाली हो जाती है ।*

ब्राह्मण शास्त्रों के विपरीत चलता है तो पाखण्ड और दम्भ फैलता है ।
क्षत्रिय डरपोंक और नीच मनुष्य का गुलाम होता है तो समाज में अराजकता फैल जाती है ।
राधे राधे

*-आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, श्रीधाम वृन्दाबन*

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